शनिवार व्रत कथा, पूजा विधि और आरती | Shanivar Vrat Katha, Puja Vidhi aur Aarti

Shanivar Vrat Katha, Puja Vidhi aur Aartiशनिवार व्रत कथा, पूजा विधि और आरती

Shanivar Vrat Katha, Puja Vidhi aur Aarti: इस दिन व्रत रखने वाला व्यक्ति दिन में केवल एक ही बार भोजन ग्रहण करता है। शनि देव का व्रत शनिग्रह के कष्टों को दूर करने में सहायक होता है। यदि राहु-केतु की दृष्टि खराब चल रही हो तो भी यह व्रत विशेष लाभकारी सिद्ध होता है। शनिवार के दिन शनि की पूजा होती है।

Shanivar Vrat Katha, Puja Vidhi aur Aarti

शनिवार व्रत की पूजा विधि (Shanivar Vrat Puja Vidhi)

काला तिल, काला वस्त्र, तेल, उड़द शनि को बहुत प्रिय हैं। इसलिए इनके द्वारा शनि की पूजा होती है। कहते हैं कि इस व्रत को श्रावण मास के शुक्लपक्ष से आरंभ करना चाहिए। बहुत से लोग भगवान सदाशिव की प्रसन्नता के निमित्त इस व्रत को करते हैं। शनि की दशा को दूर करने के लिए यह व्रत किया जाता है।

Shanivar Vrat Katha, Puja Vidhi aur Aarti
शनिवार व्रत कथा, पूजा विधि और आरती

शनिवार को प्रातःकाल उठकर, नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नानादि करके शनिदेव का संकल्प करना चाहिए। फिर पूजा करनी चाहिए। यह पूजा यदि पीपल वृक्ष के नीचे की जाए तो बहुत उत्तम रहता है। पूजन के बाद पीपल की प्रदक्षिणा भी अवश्य करनी चाहिए। शनि स्त्रोत का पाठ भी विशेष लाभदायक सिद्ध होता है।

शनिवार व्रत की कथा-1 (Shanivar Vrat Katha)

यादव-कुल- श्रेष्ठ श्रीकृष्ण की श्रेष्ठ पटरानी का नाम रुक्मिणी था। रुक्मिणी की एक छोटी बहन बड़ी ही कर्कशा और दरिद्र प्रकृति की स्त्री थी। इसी कारण कोई राजकुमार उसके साथ विवाह नहीं करता था। एक दिन रुक्मिणी ने उसके विवाह के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना की।

श्रीकृष्ण ने कुलक्ष्मी का विवाह एक मुनि के साथ करा दिया। मुनिवर ज्ञानी ध्यानी साधु महात्मा थे रात दिन वह भजन पूजन में लगे रहते थे। इस कारण स्त्री को उनके साथ झगड़ने का मौका ही नहीं मिलता था। परन्तु जब मुनि भगवान का पूजन करके सन्ध्या-सवेरे शंख बजाते थे, तब उनकी स्त्री धाड़ मारकर रोती थी। इस बात से मुनि को बड़ा दुःख होता था ।

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एक दिन मुनि ने स्त्री से पूछा कि तुमको क्या अच्छा लगता है ? जिस बात में तुम्हारा जी लगे उसी के अनुकूल तुम्हारा प्रबन्ध कर दूं। वह बोली कि जितने काम तुम करते हो, उन सबसे मुझे घृणा है।

पितृ पूजा, देवार्चन, दान-पुण्य, होम-जप तथा यज्ञादि कर्मों से मुझको बड़ी घृणा है। मुझे तो ऐसी जगह अच्छी लगती है, जहां खूब कलह होता हो। जीवों को उत्पीड़ित और सन्तप्त देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है।

तब मुनि ने कहा कि अच्छा मेरे साथ चलो, मैं तुमको ऐसे ही स्थान पर पहुंचाये देता हूं। वहां तुम्हारा जी लगेगा। तब स्त्री मुनि के साथ-साथ चली। मुनि ने सघन जंगल में एक बड़ा ऊंचा पीपल का पेड़ देखकर स्त्री को उसी पर बिठा दिया और अपने आश्रम को चले गये। आधी रात को कुलक्ष्मी रोने लगी।

Shanivar Vrat Katha
शनिवार व्रत की कथा

उसी समय रुक्मिणी श्रीकृष्ण को ब्यालू करा रही थीं। बहन का रोना सुनकर उन्होंने उलाहना देते हुए कहा कि आपने अच्छी जगह मेरी बहन की शादी कराई। वह वनवासी मुनि उसे न जाने कहां जंगल में छोड़ आया है। सुनिये, वह इस समय कैसा विलाप कर रही है।

तब भगवान ने कहा कि तुम्हारी बहन पूरी कंकाली है। वह मुनि के भजन-पूजन में बाधा देती होगी। इसी कारण मुनि ने उसे निकाल दिया होगा। संसार में भले के साथी सब होते हैं, बुरे का साथी कोई नहीं होता।

तब रुक्मिणी ने फिर प्रार्थना की कि अब उसका निर्वाह कैसे हो ? इसका कुछ उपाय कीजिये। रुक्मिणी की बात मानकर श्रीकृष्ण उसी समय उस स्थान पर गये, जहां कुलक्ष्मी पीपल के पेड़ पर बैठी रो रही थी।

उन्होंने उससे पूछा कि इस समय यहां बैठी क्यों रो रही हो? वह बोली कि मुनि मुझको बिठा कर चले गये हैं। यहां अकेली बैठे-बैठे जी घबड़ाता है। इसी कारण रोती हूं।

श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम मुनि को हैरान-परेशान करती होगी, उनके भजन-पूजन में बाधा देती होगी, इसी कारण उन्होंने तुमको त्याग दिया है। मैं अब मुनि को तो दबा नहीं सकता। अगर तुम इस बात पर राजी हो जाओ कि अब कभी अपने पति के प्रतिकूल आचरण न करोगी, तो कुछ उपाय हो सकता है। यह सुनकर वह बोली कि मैं आपकी आज्ञा मानने को तैयार हूं, पर क्या करूं, अपने स्वभाव से लाचार हूं।

इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि ऐसी कलह-कारिणी के लिए एकान्तवास से अच्छा और कोई उपाय नहीं हो सकता। इसलिए मेरी आज्ञा है कि अब तुम सदैव इसी वृक्ष पर वास करो। इसमें सम्पूर्ण देवताओं का वास है। मेरी अर्द्धांगिनी लक्ष्मी का भी इसी में निवास है।

शनिवार के दिन जो कोई सूर्योदय के पूर्व पीपल के वृक्ष की पूजा करेगा; वह तो लक्ष्मीजी को पहुंचेगा, परन्तु जो सूर्योदय के बाद पीपल की पूजा करेगा वह पूजन तुमको अर्पित होगा। पुनः जिनकी पूजा तुमको मिलेगी, उन्हीं के घर में तुम्हारा वास भी होगा।

शनिवार व्रत की कथा-2 (Shanivar Vrat Katha)

एक समय सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन ग्रहों में आपस में झगड़ा हो गया। बहस इस बात पर थी कि उनमें सबसे बड़ा कौन है? सब अपने आपको बड़ा कह रहे थे।

जब आपस में कोई फैसला ना हो सका, तो सभी आपस में झगड़ते हुए भगवान इंद्र के पास गए और कहने लगे कि आप सब देवताओं के राजा हो, इसलिए आप हमारा न्याय करके बतलाओ कि हम नवों ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है?

राजा इंद्र इनका प्रश्न सुनकर घबरा गए और कहने लगे कि मुझमें यह सामर्थ्य नहीं है जो किसी को बड़ा या छोटा बतलाऊं। मैं अपने मुख से कुछ नहीं कह सकता। हां, एक उपाय हो सकता है। इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य दूसरों के दुखों का निवारण करने वाला है। इसलिए तुम सब मिलकर उन्हीं के पास जाओ। वही तुम्हारे दुखों का निवारण करेंगे।

ऐसा वचन सुनकर सभी ग्रह देवता चलकर भूलोक में राजा विक्रमादित्य की सभा में जाकर उपस्थित हुए और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा। राजा उनकी बात सुनकर बड़ी चिंता में पड़ गए कि मैं अपने मुख से किसको बड़ा और किसको छोटा बतलाऊं, जिसको छोटा बतलाऊंगा वही क्रोध करेगा, किंतु उनका झगड़ा निपटाने के लिए उन्होंने एक उपाय सोचा।

राजा ने सोना, चांदी, कांसा, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहा आदि नौ धातुओं के नौ आसन बनवाए। सब आसनों को क्रम से जैसे सोना सबसे पहले और लोहा सबसे पीछे बिछाए गए।

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शनिवार व्रत की कथा

इसके पश्चात राजा ने सब ग्रहों से कहा- हे देवो! ये नौ आसन क्रम से रखे हुए हैं। जिसका आसन सबसे आगे है, वह सबसे बड़ा है और जिसका आसन सबसे पीछे है, वह सबसे छोटा है शनिदेव का आसन सबसे पीछे था, इसलिए शनिदेव ने समझ लिया कि राजा ने मुझको सबसे छोटा बना दिया है। इस पर शनि को बड़ा क्रोध आया।

उसने कहा कि हे राजा! तू मेरे पराक्रम को नहीं जानता। सूर्य एक राशि पर एक महीना, चंद्रमा सवा दो दिन मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, बुध और शुक्र एक से अढ़ाई एक महीने, और राहु-केतु उल्टे चलते हुए केवल अट्ठारह महीने एक राशि पर रहते हैं। किंतु मैं एक राशि पर ढाई अथवा साढ़े सात साल तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंन भीषण दुख दिया है।

राजन सुनो! रामजी को साढ़े साती आई और उन्हें बनवास हो गया और रावण पर आई तो राम-लक्ष्मण ने सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दी। रावण के कुल का मैंने सर्वनाश करा दिया, इसलिए हे राजन! अब मैं तुम्हारी राशि पर आ गया हूं, अतः अब तुम सावधान रहना।

राजा कहने लगा- जो कुछ भाग्य में होगा देखा जाएगा। उसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता के साथ चले गए, किंतु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से सिधारे। कुछ काल व्यतीत हो जाने पर जब राजा को साढ़े साती की दशा आई, तो शनिदेव अश्वों के सौदागर बनकर अनेक सुंदर अश्वों के सहित राजा की राजधानी में आए।

जब राजा ने सौदागर के आने का समाचार सुना तो अश्वपाल को अच्छे-अच्छे अश्व खरीदने की आज्ञा दी। अश्वपाल ऐसी अच्छी नस्ल के अश्वों को देखकर और उनका मूल्य सुनकर चकित हो गया। उसने तुरंत ही लौटकर यह समाचार राजा को दिया कि अश्वों का मूल्य चुकाना संभव नहीं है।

तब राजा स्वयं वहां पहुंच गए। उन्होंने सौदागर रूपी शनिदेव के समक्ष एक सुंदर और स्वस्थ अश्व चुना। वह जैसे ही अश्व पर चढ़े, अश्व बेकाबू हो गया और हवा से बातें करने लगा। राजा ने अश्व को साधने की बहुत कोशिश की, किंतु वह अश्व लगातार भागता रहा। अंत में वह राजा को एक विद्यावान वन में पटककर लोप हो गया।

यह देख राजा समझ गए कि शनि का कार्य प्रारंभ हो चुका है। इसके बाद राजा अकेला वन में भटकता फिरता रहा। बहुत देर के पश्चात राजा ने भूख और प्यास से दुखी होकर भटकते- भटकते एक ग्वाले को देखा।

ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया। राजा की उंगली में एक अंगूठी थी। उन्होंने उसे निकालकर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और शहर की ओर चल दिया। राजा शहर में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गए और अपने आपको उन्होंने उज्जैन का रहने वाला तथा अपना नाम वीका बतलाया।

सेठ ने उनको कुलीन मनुष्य समझकर जल आदि पिलाया । भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बिक्री बहुत अधिक हुई। तब सेठ उनको भाग्यवान पुरुष समझकर भोजन कराने के लिए अपने साथ ले गया। भोजन करते समय राजा ने आश्चर्य की बात देखी कि खूंटी पर हार लटक रहा है और वह खूंटी उस हार को निगल रही है।

भोजन के पश्चात कमरे में आने पर जब सेठ को कमरे में हार न मिला तो सबने यही निश्चय किया कि सिवाय वीका के और कोई इस कमरे में नहीं आया, अतः अवश्य ही उसी ने हार को चुराया है, किंतु वीका ने हार लेने से मना कर दिया।

इस पर पांच-सात आदमी इकट्ठे होकर उसको कोतवाल के पास लाए। कोतवाल ने उसको राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा कि ये आदमी तो भला प्रतीत होता है, चोर मालूम नहीं होता, किंतु सेठ का कहना है कि इसके सिवाय और कोई घर में आया ही नहीं, अवश्य ही इसी ने चोरी की है।

तब राजा ने आज्ञा दी कि इसके हाथ- ‘काटकर चौरंगिया किया जाए। राजा की आज्ञा का तुरंत पालन किया गया और वीका बने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पैर काट दिए गए।

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शनिवार व्रत की कथा

इस प्रकार कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उनको अपने घर ले गया और कोल्हू पर उसको बिठा दिया। वीका उस पर बैठे हुए जुबान से बैल हांकते रहे। जब शनि की दशा समाप्त हो गई और एक रात को वर्षा ऋतु के समय वह मल्हार राग गाने लगे, तब उनका गीत सुनकर उस शहर के राजा की कन्या उस राग पर मोहित हो गई और दासी को खबर लेने को भेजा कि शहर में कौन गा रहा है।

दासी सारे शहर में फिरती-फिरती क्या देखती है कि तेली के घर में कोल्हू पर बैठा एक चौरंगिया राम गा रहा है। दासी ने महल में आकर राजकुमारी को सब वृत्तांत सुना दिया। बस उसी क्षण राजकुमारी ने अपने मन में वह प्रण कर लिया चाहे कुछ हो, मैं इस चौरंगिया के साथ ही विवाह करूंगी।

प्रातःकाल होते ही जब दासी ने राजकुमारी को जगाना चाहा तो राजकुमारी अनशन व्रत लेकर पड़ी रही। तब दासी ने रानी के पास जाकर राजकुमारी के न उठने का वृत्तांत कहा।

रानी ने तुरंत ही वहां पर आकर राजकुमारी को जगाया और उसके दुख का कारण पूछा, तो राजकुमारी ने कहा कि माताजी मैंने यह प्रण कर लिया है कि तेली के घर में जो चौरंगिया है, उसी के साथ विवाह करूंगी।

माता ने कहा पगली यह क्या बात कह रही है? तेरा विवाह किसी देश के राजा के साथ किया जाएगा। कन्या कहने लगी कि माता जी मैं अपना प्रण कभी नहीं तोडूंगी। माता ने चिंतित होकर यह बात राजा को बताई।

जब महाराज ने भी आकर यह समझाया कि मैं अभी देश- देशांतर में अपने दूत भेजकर सुयोग्य रूपवान एवं बड़े-से-बड़े गुणी राजकुमार की खोज करवाता हूं। उत्तम राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूंगा, ऐसी बात तुमको कभी नहीं विचारनी चाहिए।

कन्या ने कहा- पिताजी मैं अपने प्राण त्याग दूंगी, किंतु दूसरे से विवाह न करूंगी। इतना सुनकर राजा ने क्रोध से कहा- यदि तेरे भाग्य में ऐसा ही लिखा है, तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर। राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो चौरंगिया है उसके साथ मैं अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूं।

तेली ने कहा कि यह कैसे हो सकता है, कहां आप हमारे राजा और कहां मैं एक नीच तेली ? परंतु राजा ने कहा कि भाग्य के लिखे को कोई टाल नहीं सकता। तू अपने घर जाकर विवाह की तैयारी कर। राजा ने उसी समय तोरण और वंदनवार लगवाकर अपनी राजकुमारी का विवाह चौरंगिया बने विक्रमादित्य के साथ कर दिया।

रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोए तो आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिया कि राजा कहो, मुझको छोटा बतलाकर तुमने कितना दुख उठाया? राजा ने क्षमा मांगी।

शनिदेव ने प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ-पैर दिए। तब राजा ने कहा-महाराज! मेरी प्रार्थना स्वीकार करें कि जैसा दुख आपने मुझे दिया है ऐसा और किसी को न देना। शनिदेव ने कहा कि तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है, जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा उसको मेरी दशा में कभी किसी प्रकार का दुख नहीं होगा और जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। इतना कहकर शनिदेव अपने धाम को चले गए।

राजकुमारी की आंख खुली तो उसने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव सही सलामत देखे। यह देखकर राजकुमारी को बहुत आश्चर्य हुआ। तब राजा विक्रमादित्य ने पत्नी को बताया कि वह कोई तेली नहीं, बल्कि उज्जैन के राजा विक्रमादित्य हैं। यह बात सुनकर राजकुमारी अत्यंत प्रसन्न हुई।

प्रातः काल राजकुमारी से उसकी सखियों ने पूछा तो उसने अपने पति का समस्त वृत्तांत कह सुनाया। तब सबने प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईश्वर ने आपकी मनोकामना पूर्ण कर दी।

जब उस सेठ ने यह बात सुनी तो वह विक्रमादित्य के पास आया और राजा विक्रमादित्य के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा कि आप पर मैंने चोरी का झूठा दोष लगाया। अतः आप मुझको जो चाहें दण्ड दें।

राजा ने कहा- मुझ पर शनिदेव का कोप था. इसी कारण यह सब दुख मुझको प्राप्त हुआ। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, तुम अपने घर जाकर अपना कार्य करो।

सेठ बोला कि मुझे तभी शांति होगी जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करोगे। राजा ने कहा कि जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करें। सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के सुंदर भोजन बनवाए और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया। जिस समय विक्रमादित्य भोजन कर रहे थे एक अत्यंत आश्चर्य की बात सबको दिखाई दी कि जो खूंटी पहले हार निगल गई थी, वह अब हार उगल रही है।

जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत सी मोहरें राजा को भेंट की और कहा कि मेरे श्रीकंवर नामक एक कन्या है, उसका पाणिग्रहण आप करें। इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत सा दान-दहेज आदि दिया।

इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां निवास करने के पश्चात विक्रमादित्य ने शहर के राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है। फिर कुछ दिन के बाद विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी, सेठ की कन्या श्रीकंबरी तथा दोनों जगह के दहेज में प्राप्त अनेक दास, दासी, रथ और पालकियों सहित विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चल दिए।

जब वे शहर के निकट पहुंचे और पुरवासियों ने राजा के आने का समाचार सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा अगवानी के लिए वहां आई। तब बड़ी प्रसन्नता से राजा अपने महल में पधारे। सारे शहर में बड़ा भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई।

दूसरे दिन राजा ने शहर में यह सूचना कराई कि शनि देवता सब ग्रहों में सर्वोपरि हैं। मैंने इनको छोटा बतलाया, इसी से मुझको यह दुख प्राप्त हुआ। इस कारण सारे शहर में सदा शनि की पूजा और कथा होने लगी। राजा और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगती रही।

जो कोई शनि की कथा को पढ़ता या सुनता है, शनिदेव की कृपा से उसके सब दुख दूर हो जाते हैं तथा इस जन्म में वह समस्त सुखों को भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त होता है। अतः शनिवार की कथा को व्रत के दिन अवश्य पढ़ना चाहिए। ओऽम् शांति ! ओऽम् शांति !! ओऽम् शांति !!!

शनिदेव की आरती (Shanivar Vrat Aarti)

चार भुजा तहि छाजै, गदा हस्त प्यारी। जय०

रवि नंदन गज वंदन, यम अग्रज देवा।

कष्ट न सो नर पाते, करते तब सेवा। जय०

तेज अपार तुम्हारा, स्वामी सहा नहीं जावे।

तुम से विमुख जगत में, सुख नहीं पावे। जय०

नमो नमः रविनंदन सब ग्रह सिरताजा।

बंशीधर यश गावे रखियो प्रभु लाजा। जय०