Shukravar Vrat Katha, Puja Vidhi aur Aarti: इस दिन के इष्ट शुक्राचार्य है। इसकी विधि प्रदोष के समान है। शुक्रवार के व्रत के लिए ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करना चाहिए। इसके पश्चात् साफ कपड़े पहनें।
Shukravar Vrat Katha, Puja Vidhi aur Aarti
शुक्रवार व्रत की कथा (Shukravar Vrat Katha)
दो दोस्त थे। एक प्रधान (कायस्थ) और एक साहूकार का लड़का था। कायस्थ के लड़की की पत्नी घर में थी, लेकिन साहूकार के लड़के की पत्नी का गौना नहीं हुआ था। इसी वजह से वह मायके ही रहती थी।
दिन भर दोनों मित्र साथ-साथ रहते। रात को जब एक दूसरे से अलग होकर अपने-अपने घरों को जाने लगते, तब प्रधान का लड़का अपने मित्र से कहता कि हम तो घर जाकर आराम से सोयेंगे। तुम भी घर जाकर पड़े रहना।
एक दिन साहूकार के लड़के ने मित्र से प्रधान के लड़के से पूछा कि तुम तुम जो यह रोज कहा करते हो कि हम घर जाकर सो रहेंगे, तुम भी घर जाकर पड़ रहना, इसका क्या मतलब है?
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तब प्रधान का लड़का कहा कि मैं जो कुछ कहता हूं बहुत ठीक कहता हूं। मैं जब घर से बाहर जाता हूं, तब मेरे सोने के कोठे में दिया जलता हुआ मिलता है।
स्त्री व्यालू का थाल लगाये, पान बनाये, सेज बिछाये, मेरा इंतजार करती रहती है। वह प्रेम से मेरा स्वागत करती है। मेरे पैर धोकर ब्यालू परोसती है। इस तरह मैं बेहद सुख से सोकर रात्रि बिताता हूं। पर जब तुम घर जाओगे और व्यालू के लिए कहोगे, तब तुम्हारी मां-बहन और भावज वगैरह कोई तुमको व्यालू दे देंगी।
व्यालू करके तुम किसी कोने में पड़कर सोए रहोगे। सवेरे झटपट उठोगे और काम में लग जाओगे। इस मेरी रात्रि और तुम्हारी रात्रि में काफी अंतर है।
मित्र की बात सुनकर साहूकार के लड़के को बात लग गई। उसने भी अपनी स्त्री को लाने का विचार किया और घर आकर ससुराल जाने की तैयारी करने लगा। घर के लोगों ने समझाया कि अभी द्विरागमन का समय नहीं है।
शुक्र का उदय होने पर जाना और विदा करा लाना। परन्तु लड़के ने किसी की बात नहीं मानी। ससुराल चला गया। दामाद को सहसा आया देखकर ससुराल वालों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने उससे आने का कारण पूछा।
लड़के ने जवाब दिया कि मैं विदा कराने आया हूं। इस पर वहां भी सब लोगों ने उसे समझाया कि इस तरह विदा नहीं होती। आपको सगुन-साइत से आना चाहिए। लड़का राजी नहीं हुआ। तब उन लोगों ने लाचार होकर लड़की को उसके साथ भेज दिया।
कुछ दूर चलने पर सूर्योदय होते ही शुक्रदेवता मनुष्य के रूप में साहूकार के लड़के के सामने आ गये। वह रास्ता रोककर खड़े हो गये और पूछा कि स्त्री चुराकर कहां लिए जाता है? लड़के ने जवाब दिया कि अपनी ब्याही को विदा कराकर लिए जाता हूं, इसमे चोरी की कौन-सी बात है?
तब शुक्रदेवता ने कहा कि यह तेरी ब्याही नहीं, मेरी ब्याही है। मेरी आज्ञा के बिना ही तू लिवाये जाता है ! यह चोरी नहीं तो और क्या है? इस बात से साहूकार का लड़का बहुत नाराज हुआ। परन्तु शुक्रदेवता ने स्त्री का हाथ पकड़ लिया।
इस पर दोनों में झगड़ा हो गया। एक कहता था, मेरी ब्याही है। दूसरा कहता था, तेरी नहीं, मेरी ब्याही है। वे दोनों इसी तरह झगड़ते हुए पास के एक गांव में चले गये। उन्होंने वहां लोगों से पंचायत करने के लिए कहा। इस पर गांव के मुखिया पंच इकट्ठे हुए। एक प्रवीण पण्डित भी उन पंचों में था।
पंचों ने बनिये के लड़के का बयान लेकर शुक्रदेवता का बयान लिया। उन्होंने कहा कि सनातन धर्म के माननेवाले सम्पूर्ण आर्य-सन्तान में यही परिपाटी है कि वे देव उठ जाने पर शुक्र का उदय होने के पश्चात् ही कोई शुभ अनुष्ठान करते हैं। द्विरागमन की विदा तो शुक्र के अस्त में होती ही नहीं।
विवाह के बाद जब तक द्विरागमन न हो जाय, तब तक स्त्री मेरी ब्याही मानी जाती है। में शुक्रदेवता हूं। इसलिए यह स्त्री इसकी नहीं, अभी मेरी है। यह सुनकर पंचों ने शुक्रदेवता के ही पक्ष में फैसला किया।
उन्होंने कहा कि तुम इस लड़की को इसके बाप के घर वापस कर आओ। शुक्र का उदय होने पर विदा कराकर ले जाना । तब साहूकार का लड़का लाचार होकर स्त्री को फिर ससुराल वापस छोड़कर घर चला गया। फिर शुक्र का उदय होने पर विधिपूर्वक वह विदा कराई गई। तब पति-पत्नी दोनों आनन्दपूर्वक रहने लगे।
शुक्रवार की आरती/शुक्रदेव की आरती (Shukravar Ki Aarti/ Sukra Dev Ki Aarti)
आरती लक्ष्मण बालजती की।
असुर संहारन प्राणपति की॥
जगमग ज्योति अवधपुर राजे।
शेषाचल पै आप विराजे॥
घंटाताल पखावज बाजे।
कोटि देव मुनि आरती साजे॥
किरीट मुकुट कर धनुष विराजे।
तीन लोक जाकी शोभा राजे॥
कंचन थार कपूर सुहाई।
आरती करत सुमित्रा माई॥
आरती कीजे हरी की तैसी।
ध्रुव प्रहलाद विभीषण जैसी॥
प्रेम मगन होय आरती गावैं।
बसि वैकुण्ठ बहुरि नहीं आवैं॥
भक्ति हेतु हरि ध्यान लगावै।
जन घनश्याम परमपद पावैं॥