राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध

Essay on National Language Hindi: भाषा, ध्वनि संकेतों को कहते हैं। उसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान करता है। वह अभिव्यज्जना का एक मात्र प्रमुख साधन है। उसके बिना सम्पर्क सूत्र ही टूट जाता है। जब कोई भाषा विकसित होकर सम्पूर्ण राष्ट्र की सम्पर्क भाषा बन जाती है, तो उसे ‘राष्ट्र भाषा’ कहते हैं।

Essay on National Language Hindi

हिंदी भाषा की महत्ता

बिना राष्ट्रभाषा के कोई राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता, एक ही भाषा की छाया में देश में एकता स्थापित होती है और देश संगठित होकर ऊपर उठता है। राष्ट्रभाषा जनता की भाषा होती है। समूचे राष्ट्र की भाषा होती है।

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राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध

हमारा देश विशाल है, यहां अनेक प्रान्तों में अनेक प्रकार की भाषाएं बोली जाती हैं। स्वतन्त्रता के बाद और समस्याओं की तरह भाषा की समस्या भी बड़े जोर शोर से उमड़ी। अंग्रेजों ने भाषा भेद, जातिभेद, धर्मभेद आदि का लाभ उठा- कर देश को विखंडित कर दिया था। देश की एकता नष्ट कर दी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश की एकता की समस्या भी पैदा हुई।

राष्ट्रभाषा की आवश्यकता

भाषाओं के भीतर भी एकता की समस्या पैदा हुई, आज अनेक समस्याओं के बीच देश में भाषा की समस्या हुई। अभी भी यह भाषा संघर्ष चल रहा है, गांधी जी ने राष्ट्र भाषा के पद पर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का सोचा था, तथा उसके लिए उन्होंने अथक प्रयत्न किया था।

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साहित्य के क्षेत्र में बाबू हरिश्चन्द्र ने भी हिन्दी के विकास पर जोर दिया था। आर्य समाज ने भी हिन्दी के प्रचार के लिए सामाजिक आन्दोलन छेड़ा था। अपना राज्य, हमेशा अपनी भाषा में चलता है। उसके द्वारा ही राष्ट्र को संग- ठित किया जा सकता है, प्रायः विद्वानों और राजनीतिक नेताओं को ही राष्ट्र भाषा बनाने पर जोर दिया था।

स्वतन्त्र भारत और राष्ट्रभाषा

15 अगस्त 1947 को देश स्वतन्त्र हुआ। 14 सितम्बर 1949 को संविधान के अनुच्छेद 343 में यह स्वीकार किया गया कि राजभाषा हिन्दी और लिपि देव नागरी में होगी। संविधान अनुच्छेद 344 के अनुसार 5 वर्षों के बाद राष्ट्रपति ने 1955 में राजभाषा आयोग गठित किया आयोग ने 446 पृष्ठों का एक विचार पूर्ण प्रतिवेदन प्रस्तुत किया, भाषा का माध्यम हिन्दी स्वीकार किया गया। पर मुख्य रूप से दो विचार सामने आए।

  • डॉ० सुनीति कुमार और डॉ० सुब्बाराम ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में जल्दी की जा रही है-सुझाव प्रस्तुत किया।
  • विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की स्पष्ट अनुशंसाकी, उसने यह भी लिखा कि अंग्रेजी जारी रहने से देश दो भागों में बंट जाता है. 1. शासकों की भाषा अंग्रेजो और (2) शापितों की भाषा हिन्दी के सिवाय अन्य भाषाएं।
  • शिक्षा आयोग अन्तिम ने 1966 में अपने प्रतिवेदन में कहा कि बहु-संख्यक जनता के लिए अंग्रेजी सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकती, केवल हिन्दी ही उसका स्थान ले सकती है।

14 सितम्बर 1950 की भारतीय संविधान परिषद् के निर्णयानुसार 1965 में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रतिष्ठित हो जाना चाहिए था पर यह भी स्वीकार किया गया कि अंग्रेजी भी हिन्दी के साथ चलती रहेगी। अंग्रेजी का प्रयोग जब तक राज्यों के विधान मंडल हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाने के लिए संकल्प ना ले लें।

संविधान में हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। पर वह अभी तक उस पद पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकी है।

  • हमारे जननेता हिन्दी को ग्रहण करने लिए तैयार नहीं हैं।
  • उच्च पद पर प्रतिष्ठित उच्चाधिकारी हिन्दी की उपेक्षा कर रहे हैं। इसके परिणाम स्वरूप भेदमूलक विभाषा सूत्र को जन्म मिला। अहिन्दी प्रदेशों में हिन्दी के लिए दंगे और उपद्रव कारी आन्दोलन हुए। हिन्दी प्रदेशों में अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन भी प्रतिक्रिया स्वरूप हुए। अंग्रेजी को विश्व ज्ञान का द्वार कहने वालों ने लोगों में यह प्रचार किया कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने से अहिन्दी भाषी राज्य पीछे रह जाएंगे।

हिंदी का विरोध

चारों ओर विरोध है, पर हिन्दी निरन्तर विकसित होती चली जा रही है। वह राष्ट्रभाषा, राजभाषा, साहित्य भाषा, परम्परागत आर्यभाषा, प्रादेशिक भाषा, व्यापारिक भाषा, विश्वभाषा और जनभाषा का प्रतिनिधित्व कर रही है।

विश्व के अनेकों विश्वविद्यालयों में हिन्दी की शिक्षा दी जा रही है हिन्दी में मधुरता, सरसता, ओजस्विता आदि गुण तो हैं ही, पर उसके पास विशाल प्राचीन- तम साहित्यिक सम्पत्ति है, उसके भीतर सम्पूर्ण विश्व किसी न किसी रूप में हैं। वह करुणा, मंत्री, सत्य अहिंसा, विश्व मानवता के उच्च सिद्धान्तों को वाहिका है, इसलिए भी उसका अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व है।

हिन्दी के पास क्या नहीं है, फिर भी वह अपने पद पर प्रतिष्ठित नहीं हो पा रही है, यह तो हमारे देश के राजनीतिक नेताओं को कमजोरी है। वे अपने नेतृत्व को बचाने के लिए हिन्दी की उपेक्षा करते जा रहे है। साथ ही हिन्दी को अधिकाधिक जनोपयोगी और व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है।

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राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध

विद्वानों द्वारा अंग्रेजी का जो हिन्दीकरण हुआ है, उसे देखकर हिन्दी जानने वालों के प्राण भी सूचे जा रहे हैं। हिन्दी में उसकी क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द लेकर उसे अधिकाधिक लोकप्रिय और व्यवहारिक बनाना भी आवश्यक है। हिन्दी, राजभाषा बने इस पर विभिन्न विद्वानों के मत भी ध्यान देने योग्य है-

महात्मा गांधी- यदि स्वराज्य अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों का और उन्हीं के लिए होने वाला हो तो निसंदेह अंग्रेजी ही राजभाषा होगी, लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों, निरक्षरों, निरन्तर बदनों और दलितों का हो तो हिन्दी ही एकमात्र राजभाषा बन सकेगी।

सम्पूर्णानन्द- अंग्रेजी सिर पर ढोना डूब मरने के समान है।

अमृत लाल नागर- अंग्रेजी ने हमारी परम्पराएँ छिन भित्र कर हमें जंगली बना देने का भरसक प्रयत्न किया है।

के० सी० सारंगमठ- हिन्दी विरोधी नीति दक्षिण की नहीं अंग्रेजी भक्तों की नीति है।

डॉ० कामिल बुल्के- अग्रेजी यहां दासी और अतिथि के रूप में रह सकती है। बहूरानी के रूप में नहीं।

मोरारजी देसाई- जब तक इस देश का राजकाज अपनी भाषा में नहीं बनेगा, तब तक हम कह नहीं सकते कि देश में स्वराज्य है।

सुभाषचन्द बोस- हिन्दी विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।

हिन्दी भारत के अनेक प्राप्तों में बोली जाती है, कुछ ही प्रान्तों की भाषा हिन्दी नहीं है यदि हिन्दी राष्ट्र भाषा या सम्पर्क भाषा के रूप में अपना की जाती है, वो प्रादेशिक भाषाओं के विकास में कोई रुकावट आने की नहीं, एक सम्पर्क भाषा बनने से वैचारिक आदान प्रदान और राजकीय कामों में सरलता आएगी, स्वतन्त्रता के मिलने के बाद भी हम एक भाषा की छाया में संगठित नहीं हो सके हैं।

इसके राष्ट्रीय अभिमान भी आहत हुआ है। अंग्रेजी को छाती से चिपकाए रहना, सांस्कृतिक दासता है, स्वतन्त्र देश के लिए विदेशी भाषा का प्रयोग हास्यास्पद है। जितनी जल्दी राजभाषा के रूप में हिन्दी देश की सम्पर्क भाषा बनेगी, उतनी जल्दी देश का विकास सम्भव होगा। हमें आत्म स्वार्थ से दूर रहकर देश को बनाने के लिए हिन्दी को सम्पर्क भाषा स्वीकार करनी ही पड़ेगी, हमें शीघ्र – शीघ्र इस गलती को ठीक करना है।

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