Navaratri 2023: नवरात्रि की विधि-कथा, 9 देवियां की आरती और मंत्र

Chaitra Navaratriचैत्र नवरात्रि

Navaratri: नवरात्रि में आदिशक्ति भगवती दुर्गा की पूजा-अर्चना का सनातन धर्म में विशेष महत्व है। शास्त्रों में वैसे चार नवरात्रों के बारे में कहा गया है, जिनमें से वासंती व शारदीय नवरात्रों की विस्तृत व्याख्या की गई है। वासंती नवरात्र चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होता है। नवरात्र में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की उपासना तथा दुर्गा सप्तशती के पाठ की प्रधानता है।

ऐसी मान्यता है कि नवरात्रों में भगवती पृथ्वीलोक के निवासियों के कल्याणार्थ यहां पधारती हैं तथा नौ दिनों तक निवास करती हैं। शास्त्रों में ऐसी मान्यता भी है कि भगवती आगमन व प्रस्थान के लिये प्रत्येक वर्ष अलग-अलग सवारी का उपयोग करती हैं। लोक प्रचलित धारणाओं में इन सवारियों से उस वर्ष के फलाफल की गणना भी की जाती है। इन नौ दिनों में भगवती के नौ स्वरूपों की पूजा का विधान है।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीय ब्रह्चारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।

नवरात्र के प्रथम दिन शैलपुत्री, दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी, तीसरे दिन चन्द्रघण्टा, चौथे दिन कुष्माण्डा, पांचवें दिन स्कन्दमाता, छठे दिन कात्यायनी, सातवें दिन कालरात्रि, आठवें दिन महागौरी और नौवें दिन सिद्धिदात्री के स्वरूप की पूजा होती है। भगवती के इन स्वरूपों के नाम वेद भगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु व शिव से सुपूजित देवी की आराधना के कारण हिंदू धर्म एवं संस्कृति में नवरात्र का महत्व बढ़ जाता है।

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नवरात्रि पर आरती और मंत्र (Navaratri Aarti Aur Mantra)

मां शैलपुत्री (Maa Shailputri Kaun Hain)

नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा होती है, जो पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं। इन्हें माता पार्वती और हेमवती के नाम से भी पहचाना जाता है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल, जबकि बाएं हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। मां शैलपुत्री की पूजा से मन वांछित फल मिलता है।

Maa Shailputri Ka Mantra aur Aarti
मां शैलपुत्री

मां शैलपुत्री का मंत्र (Maa Shailputri Ka Mantra)

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ शैलपुत्री देव्यै नम:।

मां शैलपुत्री की आरती (Maa Shailputri Ki Aarti)

शैलपुत्री मां बैल पर सवार। करें देवता जय जयकार।
शिव शंकर की प्रिय भवानी। तेरी महिमा किसी ने ना जानी।

पार्वती तू उमा कहलावे। जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू। दया करे धनवान करे तू।

सोमवार को शिव संग प्यारी। आरती तेरी जिसने उतारी।
उसकी सगरी आस पुजा दो। सगरे दुख तकलीफ मिला दो।

घी का सुंदर दीप जला के। गोला गरी का भोग लगा के।
श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं। प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।

जय गिरिराज किशोरी अंबे। शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।
मनोकामना पूर्ण कर दो। भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।

मां ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini Kaun Hain)

मां ब्रह्मचारिणी की पूजा नवरात्रि के दूसरे दिन होती है। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी का अर्थ का आचरण। मां ब्रह्मचारिणी तपस्वी हैं, जिनकी उपासना से भक्तों का जीवन सफल हो जाता है। इनके एक हाथ में कमंडल, जबकि दूसरे हाथ में माला है।

Maa Brahmacharini Ka Mantra aur Aarti
मां ब्रह्मचारिणी

मां ब्रह्मचारिणी का मंत्र (Maa Brahmacharini Ka Mantra)

या देवी सर्वभूतेषु मां ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता.
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:..
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू.
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा..
ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः॥

मां ब्रह्मचारिणी की आरती (Maa Brahmacharini Ki Aarti)

जय अम्बे ब्रह्मचारिणी माता. जय चतुरानन प्रिय सुख दाता।

ब्रह्मा जी के मन भाती हो. ज्ञान सभी को सिखलाती हो।

ब्रह्म मन्त्र है जाप तुम्हारा. जिसको जपे सरल संसारा।

जय गायत्री वेद की माता. जो जन जिस दिन तुम्हें ध्याता।

कमी कोई रहने ना पाए. उसकी विरति रहे ठिकाने।

जो तेरी महिमा को जाने. रद्रक्षा की माला ले कर।

जपे जो मन्त्र श्रद्धा दे कर. आलस छोड़ करे गुणगाना।

माँ तुम उसको सुख पहुँचाना. ब्रह्मचारिणी तेरो नाम।

पूर्ण करो सब मेरे काम. भक्त तेरे चरणों का पुजारी

रखना लाज मेरी महतारी।

मां चंद्रघंटा (Maa Chandraghanta Kaun Hain)

चंद्रघंटा मां दुर्गा का तीसरा रूप है। माता का ये स्वरूप अपनी दुर्बलताओं से साहसपूर्वक लड़ना और उन पर विजय प्राप्त करने की शिक्षा देता है। माता के इस स्वरूप की दस भुजाएं हैं।

Maa Chandraghanta Ka Mantra aur Aarti
मां चंद्रघंटा

मां चंद्रघंटा का मंत्र (Maa Chandraghanta Ka Mantra)

या देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः।”

पिंडजप्रवरारूढा, चंडकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं, चंद्रघंटेति विश्रुता।।

मां चंद्रघंटा की आरती (Maa Chandraghanta Ki Aarti)

जय मां चंद्रघंटा सुख धाम, पूर्ण कीजो मेरे काम।

चंद्र समान तू शीतल दाती, चंद्र तेज किरणों में समाती।

क्रोध को शांत बनाने वाली, मीठे बोल सिखाने वाली।

मन की मालक मन भाती हो, चंद्र घंटा तुम वरदाती हो।

सुंदर भाव को लाने वाली, हर संकट मे बचाने वाली।

हर बुधवार जो तुझे ध्याये, श्रद्धा सहित जो विनय सुनाय।

मूर्ति चंद्र आकार बनाएं, सन्मुख घी की ज्योत जलाएं।

शीश झुका कहे मन की बाता, पूर्ण आस करो जगदाता।

कांची पुर स्थान तुम्हारा, करनाटिका में मान तुम्हारा।

नाम तेरा रटू महारानी, भक्त की रक्षा करो भवानी।

मां कुष्मांडा (Maa kushmanda Kaun Hain)

नवरात्रि के चौथे दिन मां कुष्मांडा की पूजा होती है। मान्या के अनुसार जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था। उस वक्त मां कुष्मांडा ने ब्रह्मांड की रचना की थी।

Maa kushmanda Ka Mantra aur Aarti
मां कूष्मांडा

मां कुष्मांडा का मंत्र (Maa kushmanda Ka Mantra)

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

मां कुष्मांडा की आरती (Maa kushmanda Ki Aarti)

कुष्मांडा जय जग सुखदानी, मुझ पर दया करो महारानी॥

पिगंला ज्वालामुखी निराली, शाकंबरी मां भोली भाली॥

लाखों नाम निराले तेरे, भक्त कई मतवाले तेरे॥

भीमा पर्वत पर है डेरा, स्वीकारो प्रणाम ये मेरा॥

सबकी सुनती हो जगदम्बे, सुख पहुंचती हो मां अम्बे॥

तेरे दर्शन का मैं प्यासा, पूर्ण कर दो मेरी आशा॥

मां के मन में ममता भारी, क्यों ना सुनेगी अरज हमारी॥

तेरे दर पर किया है डेरा, दूर करो मां संकट मेरा॥

मेरे कारज पूरे कर दो, मेरे तुम भंडारे भर दो॥

तेरा दास तुझे ही ध्याए, भक्त तेरे दर शीश झुकाए॥

स्कंदमाता (Skandamata Kaun Hain)

मां दुर्गा के पांचवे स्वरूप स्कन्दमाता की पूजा अर्चना पांचवें नवरात्र पर की जाती है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्दजी बाल रूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्द मात्र स्वरूपणी देवी की चार भुजाएं हैं। ये दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द को गोद में पकड़े हुए हैं और दाहिनीं तरफ की नीचे वाली भुजा से वर प्रदान करती हैं।

शास्त्रों में पांचवें नवरात्र का विशेष महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। वह विशुद्द चैतन्य स्वरूप की ओर अग्रसर होता है।

Skandamata Ka Mantra aur Aarti
स्कंदमाता

स्कंदमाता का मंत्र (Skandamata Ka Mantra)

या देवी सर्वभूतेषु मां स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

स्कंदमाता की आरती (Skandamata Ki Aarti)

जय तेरी हो स्कंद माता, पांचवा नाम तुम्हारा आता।

सब के मन की जानन हारी, जग जननी सब की महतारी।

तेरी ज्योत जलाता रहूं मैं, हरदम तुम्हे ध्याता रहूं मैं।

कई नामो से तुझे पुकारा, मुझे एक है तेरा सहारा।

कहीं पहाड़ों पर है डेरा, कई शहरों में तेरा बसेरा।

हर मंदिर में तेरे नजारे गुण गाये, तेरे भगत प्यारे भगति।

अपनी मुझे दिला दो शक्ति, मेरी बिगड़ी बना दो।

इन्दर आदी देवता मिल सारे, करे पुकार तुम्हारे द्वारे।

दुष्ट दत्य जब चढ़ कर आये, तुम ही खंडा हाथ उठाये।

दासो को सदा बचाने आई, चमन की आस पुजाने आई।

मां कात्यायनी (Maa Katyayani Kaun Hain)

मां दुर्गा के छठे स्वरूप के रूप में मां कात्यायनी की पूजा-अर्चना की जाती है। मां कात्यायनी अमोघ फल दायनी हैं। इनका स्वरूप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है, इनकी आठ भुजाएं हैं। मां के दाहिने तरफ ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में है। बाएं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है।

Maa Katyayani Ka Mantra aur Aarti
मां कात्यायनी

मां कात्यायनी का मंत्र (Maa Katyayani Ka Mantra)

कात्यायनी महामाये , महायोगिन्यधीश्वरी।
नन्दगोपसुतं देवी, पति मे कुरु ते नमः।।

मां कात्यायनी की आरती (Maa Katyayani Ki Aarti)

जय जय अम्बे, जय कात्यायनी, जय जगमाता, जग की महारानी।

बैजनाथ स्थान तुम्हारा, वहां वरदाती नाम पुकारा।

कई नाम हैं, कई धाम हैं, यह स्थान भी तो सुखधाम है।

हर मंदिर में जोत तुम्हारी, कहीं योगेश्वरी महिमा न्यारी।

हर जगह उत्सव होते रहते, हर मंदिर में भक्त हैं कहते।

कात्यायनी रक्षक काया की, ग्रंथि काटे मोह माया की।

झूठे मोह से छुड़ाने वाली, अपना नाम जपाने वाली।

बृहस्पतिवार को पूजा करियो, ध्यान कात्यायनी का धरियो।

हर संकट को दूर करेगी, भंडारे भरपूर करेगी।

जो भी मां को भक्त पुकारे, कात्यायनी सब कष्ट निवारे।

मां कालरात्रि (Maa Kalaratri Kaun Hain)

मां कालरात्रि की पूजा सातवें दिन होती है। इनके शरीर का रंग अंधकार के समान काला है। गले में माला है। तीन नेत्र हैं, जो ब्रह्मांड की तरह गोल हैं। इनसे ज्योति निकलती है।

मां कालरात्रि दुष्टों का नाश कहती हैं। दैत्य-दानव, राक्षस, भूत-प्रेत इनके स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं।

Maa Kalaratri Ka Mantra aur Aarti
मां कालरात्रि

मां कालरात्रि का मंत्र (Maa Kalaratri Ka Mantra)

ॐ कालरात्र्यै नम:।

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता, लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा, वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥

जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्ति हारिणि।
जय सार्वगते देवि कालरात्रि नमोस्तुते॥

ॐ ऐं सर्वाप्रशमनं त्रैलोक्यस्या अखिलेश्वरी।
एवमेव त्वथा कार्यस्मद् वैरिविनाशनम् नमो सें ऐं ॐ।।

मां कालरात्रि की आरती (Maa Kalaratri Ki Aarti)

कालरात्रि जय-जय-महाकाली, काल के मुह से बचाने वाली॥

दुष्ट संघारक नाम तुम्हारा, महाचंडी तेरा अवतार॥

पृथ्वी और आकाश पे सारा, महाकाली है तेरा पसारा॥

खडग खप्पर रखने वाली, दुष्टों का लहू चखने वाली॥

कलकत्ता स्थान तुम्हारा, सब जगह देखूं तेरा नजारा॥

सभी देवता सब नर-नारी, गावें स्तुति सभी तुम्हारी॥

रक्तदंता और अन्नपूर्णा, कृपा करे तो कोई भी दुःख ना॥

ना कोई चिंता रहे बीमारी, ना कोई गम ना संकट भारी॥

उस पर कभी कष्ट ना आवें, महाकाली मां जिसे बचाबे॥

तू भी भक्त प्रेम से कह, कालरात्रि माँ तेरी जय॥

मां महागौरी (Maa Mahagauri Kaun Hain)

मां महागौरी की पूजा आठवें दिन होती है। महागौरी ने माता पार्वती के रूप में भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठिन तप किया था, जिसके कारण उनका शरीर काला पड़ गया।

इस तपस्या से प्रसन्न होकर जब शिवजी ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोया, तब उनकी त्वचा विद्दुत प्रभा के समान कांतिमान हो उठी। इसी वजह से माता का नाम महागौरी पड़ा।

Maa Mahagauri Ka Mantra aur Aarti
मां महागौरी

मां महागौरी का मंत्र (Maa Mahagauri Ka Mantra)

मंत्र: या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

मां महागौरी की आरती (Maa Mahagauri Ki Aarti)

जय महागौरी जगत की माया, जय उमा भवानी जय महामाया॥

हरिद्वार कनखल के पासा, महागौरी तेरा वहा निवास॥

चंदेर्काली और ममता अम्बे, जय शक्ति जय जय मां जगदम्बे॥

भीमा देवी विमला माता, कोशकी देवी जग विखियाता॥

हिमाचल के घर गोरी रूप तेरा, महाकाली दुर्गा है स्वरूप तेरा॥

सती ‘सत’ हवं कुंड मै था जलाया, उसी धुएं ने रूप काली बनाया॥

बना धर्म सिंह जो सवारी मै आया, तो शंकर ने त्रिशूल अपना दिखाया॥

तभी मां ने महागौरी नाम पाया, शरण आने वाले का संकट मिटाया॥

शनिवार को तेरी पूजा जो करता, माँ बिगड़ा हुआ काम उसका सुधरता॥

‘चमन’ बोलो तो सोच तुम क्या रहे हो, महागौरी माँ तेरी हरदम ही जय हो॥

मां सिद्धिदात्री (Maa Siddhidhatri Kaun Hain)

नवरात्रि के 9वें दिन मां जगदंबा के सिद्धिदात्री स्वरूप की पूजा होती है। उन्हें मोक्ष प्रदान करने वाला माना जाता है। माता के हाथ में चक्र, गदा, शंख कमल होता है। वह सिंह पर सवार हैं।

Maa Siddhidhatri Ka Mantra aur Aarti
मां सिद्धिदात्री

मां सिद्धिदात्री का मंत्र (Maa Siddhidhatri Ka Mantra)

ॐ सिद्धिदात्र्यै नम:।

मां सिद्धिदात्री की आरती (Maa Siddhidhatri Ki Aarti)

जय सिद्धिदात्री तू सिद्धि की दाता, तू भक्तों की रक्षक तू दासों की माता।

तेरा नाम लेते ही मिलती है सिद्धि, तेरे नाम से मन की होती है शुद्धि।

कठिन काम सिद्ध कराती हो तुम, हाथ सेवक के सर धरती हो तुम।

तेरी पूजा में न कोई विधि है, तू जगदंबे दाती तू सर्वसिद्धि है।

रविवार को तेरा सुमरिन करे जो, तेरी मूर्ति को ही मन में धरे जो।

तू सब काज उसके कराती हो पूरे, कभी काम उस के रहे न अधूरे।

तुम्हारी दया और तुम्हारी यह माया, रखे जिसके सर पैर मैया अपनी छाया।

सर्व सिद्धि दाती वो है भाग्यशाली, जो है तेरे दर का ही अम्बे सवाली।

हिमाचल है पर्वत जहां वास तेरा, महानंदा मंदिर में है वास तेरा।

मुझे आसरा है तुम्हारा ही माता, वंदना है सवाली तू जिसकी दाता।

Navaratri

दुर्गा सप्तशती द्वारा जो भगवती का माहात्म्य प्रकट किया गया है, उसका संक्षिप्त सारांश यह है कि शुम्भ-निशुम्भ तथा महिष-सुरादि तामसिक वृत्तिवाले असुरों की वृद्धि होने से जब देवता अत्यन्त दुःखी हुए, तब सबने मिलकर चित्-शक्ति महामाया की स्तुति और उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर देवी ने देवताओं को वरदान दिया और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक नौ दिन देवी पूजा और व्रत करने का आदेश दिया। उस दिन से ही देवी-नवरात्रि महोत्सव का प्रचार संसार में हुआ है।

नवरात्रि पूजा की विधि (Navratri Puja Vidhi)

प्रतिपदा को जो घट स्थापित किया जाता है, उसकी विधि के सम्बन्ध में लिखा है कि प्रातःकाल तैलाभ्यंग स्नान और नवरात्रि व्रत का संकल्प करे तथा गणपति पूजन, पुण्याहवाचन, नान्दी, श्राद्ध, मातृका पूजन और ऋत्विक वरण करने की प्रतिज्ञा करे।

तत्पश्चात् पृथ्वी-स्पर्शपूर्वक पूजन करके घट में हरे पत्ते डालकर जल भरे और चन्दन लगाकर सर्व औषधि – संस्कार करे तथा दूर्वा, पंचरत्न, पंचपल्लव घट में डालकर उस पर सूत या वस्त्र लपेटे। तदनन्तर गेहूं या जौ से भरा हुआ पूर्ण पात्र घट के मुख पर रखकर वरुण का पूजन करे और तब भगवती का आवाहन करे।

Chaitra Navaratri
चैत्र नवरात्रि

भगवती का आवाहन करके आसन, पाद्य, अर्घ आचमन, पंचामृत, स्नान, वस्त्र, अलंकार, गन्ध, अक्षत, पुष्प और परिमल आदि द्रव्यों से पूजन करके अंग-पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात् धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल, फल, दक्षिणा, आरती और पुष्पांजलि कर के प्रदक्षिणा करे और ऋत्विक वरण करके कुमारी-पूजन करना चाहिए। एक वर्ष की आयु से 10 वर्ष तक की कन्या का पूजन करना उचित है।

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प्रतिपदा से लगाकर दशमी पर्यन्त कन्या का पूजन करना चाहिए। देवी नवरात्रि के पूजन का सब मनुष्यों को अधिकार है। विधिमात्र भिन्न है। ब्राह्मणादि सात्विक लोगों की पूजा मांस-रहित होती है। शूद्रादि तामसी लोगों की पूजा मांस सहित होती है।

प्रतिपदा को घट स्थापन करने के बाद दशमी पर्यन्त नित्य सप्तशती का पाठ, देवी भागवत् श्रवण, अखण्ड दीप पुष्पमाला समर्पण और उपोषण करना या एक भुक्त रहना चाहिए। घट के पास नौ धान्यों को बोना चाहिए और अन्त में उनके पेड़ों की प्रसादी लेकर मस्तक पर चढ़ाना चाहिए।

पंचमी के दिन उद्यग ललिता व्रत करना चाहिए। मूल नक्षत्र में सरस्वती का आवाहन करके पूर्वाषाढ़ में पूजन करना चाहिए। उत्तराषाढ़ में बलिदान और श्रावण में विसर्जन करना चाहिए। अष्टमी और नवमी को महातिथि कहते हैं।

नवरात्रि की कथा (Navratri Ki Katha)

प्राचीनकाल में सुरथ नाम का एक राजा था। राज-काज का भार मंत्रियों को सौंपकर वह सुख से रहता था। यह देखकर उसके शत्रुओं ने उस पर चढ़ाई कर दी। मंत्री भी राजा को धोखा देकर शत्रुओं से मिल गये। परिणाम यह हुआ कि राज्य पर शत्रुओं का अधिकार हो गया और राजा तपस्वी के वेश में वनवास करने लगा।

एक दिन राजा को एक मोहग्रस्त वैश्य मिला। उसकी मोह-कथा सुनकर राजा उसके साथ मेघ ऋषि के पास गये। ऋषि ने दोनों के आने का कारण पूछा। राजा ने उत्तर दिया कि मैं राजा हूं और मेरा साथी वैश्य है। हम दोनों को गोत्र- भाइयों ने घर से निकाल दिया है। फिर भी हम उनके मोह को नहीं त्याग सकते। हमारी समझ में नहीं आता कि मोह क्या वस्तु है और मन के भीतर कौन बैठा हुआ है।

Chaitra Navaratri
चैत्र नवरात्रि कथा

ऋषि ने उपदेश देते हुए कहा कि मन शक्ति के अधीन होता है। उस आदि-शक्ति भगवती के दो रूप हैं-एक विद्या और दूसरा अविद्या। विद्या ज्ञान-स्वरूप है और अविद्या अज्ञान स्वरूप। अविद्या के कारण मोह का आविर्भाव होता है। इसलिए जो पुरुष इसी भगवती को संसार का आदि कारण जानकर उनकी भक्ति करते हैं उन्हें वह विद्या-स्वरूप से प्राप्त होकर उनको जीवन्मुक्त कर देती है।

इसके पश्चात् उन्होंने यह कथा सुनाई- महाप्रलय के समय जब श्रीलक्ष्मी नारायण शेष की शय्या पर क्षीरसमुद्र में शयन कर रहे थे और उनका प्रताप उनके शरीर में व्याप्त हो रहा था तब उसी दशा में उनकी नाभि से ब्रह्मा और दोनों कानों से मधु और कैटभ नाम के दो दैत्य उत्पन्न हुए। उन लोगों का भयानक वेश देखकर ब्रह्मा ने विचार किया कि इस समय श्रीहरि के सिवा और कोई मेरा सहायक नहीं है। परन्तु वह सुषुप्त अवस्था में हैं। उनको किसी तरह जगाना चाहिए।

यह विचार कर ब्रह्मा ने समस्त जग की प्रेरक आदि-शक्ति का ध्यान करते हुए उसकी स्तुति की। तब सर्वेश्वरी शक्ति ने अपनी वह मोहक शक्ति खींच ली, जिसके कारण विष्णु भगवान सो रहे थे। विष्णु ने जागकर उक्त दोनों दानवों से युद्ध करना आरम्भ किया।

पांच हजार वर्ष तक घोर युद्ध होता रहा, परन्तु उन खलों का बल कुछ भी कम नहीं हुआ। देवताओं ने घबरा कर शक्ति की आराधना की। शक्ति प्रकट हुई। उसने असुरों को प्रेरित किया। असुरों ने स्वयं अपने विनाश के लिए विष्णु भगवान से प्रार्थना की। विष्णु भगवान ने वैसा ही किया। उन्होंने उनको पछाड़कर उनका सिर चक्र से काट डाला ।

यह एक प्रसंग हुआ। अब जिस तरह इन्द्रादि देवताओं के लिए शक्ति प्रकट हुई, उनका हाल सुनो-

एक समय महिषासुर नाम का एक असुर ऐसा प्रबल हुआ कि उसने स्वर्ग के सब देव-दल को परास्त कर इन्द्र के निवास स्थान- को जा घेरा। इन्द्र उसके डर से भागकर त्रिदेवों के पास गये। इन्द्र समेत त्रिदेवों ने आदि-शक्ति भगवती का ध्यान किया। उसी क्षण सब देवताओं के अंगों में से एक तेज पुंज ज्वाला-सी निकलकर अग्निज्वाला की तरह पृथ्वी पर आच्छादित हो गई। उस तेज से संतप्त होकर देवताओं ने शक्ति की स्तुति करते हुए प्रार्थना की कि हमलोग आपका तेज सहन नहीं कर सकते। इस कारण कृपा करके

आप मूर्तिमान स्वरूप धारण कर लीजिये। यह सुनते ही एक सुन्दर किशोर वय मूर्ति प्रगट हो गई। उस मूर्ति के तीन नेत्र तथा आठ भुजाएं थीं। तब सब देवताओं ने उस मूर्ति की पूजा की। विष्णु भगवान ने अपना चक्र, ब्रह्मा ने अपना पवित्र कमण्डल, शिवजी ने त्रिशूल, इन्द्र ने अपना वज्र, वरुण ने शक्ति आयुध, यमराज ने अपना खड्ग और यम-फांस, अग्निदेव ने अपना-अपना धनुष-बाण, लक्ष्मी ने अपना सब श्रृंगार उसको दिया और हिमालय ने उसकी सवारी के लिए सिंह भेंट किया।

इस प्रकार सुसज्जित होकर इधर से शक्ति चली और उधर से महिषासुर दैत्य अग्रसर हुआ। शक्ति के साथ में जो देवताओं का दल था, उसको पीछे छोड़कर भवानी आगे बढ़ गई और उन्होंने महिषासुर के दैत्य-दल पर भीषण रूप से आक्रमण कर उसका नाश कर डाला।

महिषासुर अकेला रह गया। वह अनेक आसुरी माया करते हुए युद्ध में प्रवृत्त हुआ। परन्तु शक्ति ने सम्पूर्ण माया जाल को छिन्न-भिन्न कर महिषासुर को काल-पाश में लपेटकर पृथ्वी पर पटक दिया और उसकी गर्दन पर पैर रखकर खड्ग से उसका सिर काट डाला। इस प्रकार भगवती ने महिषासुर का संहार किया।

अब आगे किस तरह उन्होंने शुम्भ-निशुम्भादि दैत्यों को मारा, उसकी कथा इस प्रकार है-

श्री सूर्य भगवान की अदिति नाम की रानी के गर्भ से शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो दैत्य उत्पन्न हुए। ज्येष्ठ भाई शुम्भ राज छत्र धारण कर दैत्य-समाज पर शासन करता था और उसका छोटा भाई। निशुम्भ भी समान रूप से बलवान और सामर्थ्यवान था। जीवधारी की कौन कहें, पंचतत्त्व भी उनके भय से सशंक रहते थे। उनका प्रधान कर्मचारी रक्तबिन्दु और सेनापति धूम्रलोचन दोनों बड़े कार्य-कुशल और कुशाग्र-बुद्धि थे।

सेनापति के सहकारी चंड और मुंड नाम के दैत्य बड़े विकट स्वरूप और अजेय योद्धा थे। इन लोगों के आतंक से समस्त देवदल छिन्न-भिन्न हो गया था। इस आपत्ति से अकुला कर त्रिदेवों समेत सम्पूर्ण देवता हिमालय पर्वत पर पार्वतीजी की स्तुति और वन्दना करने लगे।

इसी बीच पार्वतीजी स्नान करने के लिए निकलीं। देवताओं को इकट्ठा देखकर उनके मुख से एक अनुपम शक्ति निकली। उसके निकलते ही गौरांगी पार्वती का स्वरूप श्याम वर्ण हो गया। उस शक्ति ने पार्वतीजी के सम्मुख स्थित होकर कहा कि देवता असुरों के भय से विहल होकर मेरी स्तुति कर रहे हैं। इसी कारण मैं स्वयं सिद्ध प्रकट हुई हूं।

देवता उस स्वयं सिद्ध शक्ति का अनुपम स्वरूप देखकर चकित हो गये और वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उसके चरणों पर गिर पड़े। भगवती ने उनको पर्वत की गुफाओं में छिप जाने का आदेश दिया। देवताओं के छिपे रहने पर वह आदि-कुमारी अद्भुत स्वरूप धारण कर सुमेरु-शिखर के राज-सिंहासन पर आसीन हुई और असुर-दल के अनुचरों को मार-मारकर बाहर निकालने लगीं।

यह समाचार पाकर असुरराज शुम्भ निशुम्भ आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने वास्तविक स्थिति जानने के लिए जो गुप्तचर भेजे, वे भी आदि-शक्ति का दिव्य स्वरूप देखकर मोहित हो गये। लौटकर उन्होंने अपने राजा से तपस्विनी के रूप गुण का खूब बखान किया। इस पर दैत्यराज ने भगवती के पास एक राजदूत द्वारा विवाह का प्रस्ताव भेजा। कहां देवी भगवती और कहां वह राक्षस !

दूत ने जगज्जननी के आदेशानुसार सब बातें शुम्भ से कह सुनाईं, जिन्हें सुनते ही शुम्भ ने धूम्रलोचन को दल-बल सहित कैलास पर जाकर भगवती को पकड़ लाने की आज्ञा दी। शुम्भ की आज्ञा पाकर धूम्रलोचन सुमेरु-शिखर पर चढ़कर भगवती के सम्मुख जा पहुंचा। भगवती उसके आने का आशय समझ गईं।

अतः उन्होंने आप ही आप एक हुंकार शब्द किया। उसकी दाह शक्ति से भस्मीभूत होना सुनकर उसके साथ-साथ वाले दानव शिखर पर चढ़ दौड़े। यह देखकर शक्ति ने उनके ऊपर सिंह को ललकार दिया और सिंह ने उन सब का सर्वनाश कर दिया।

सिंह का ग्रास होने से जो बचे वे शुम्भ के दरबार में गये। उनसे आदि-शक्ति के प्रभुत्व एवं वैभव का समाचार सुनकर शुम्भ ने सहायक सेनानायक चंड-मुंड की शक्ति को पकड़ लाने की आज्ञा दी। चंड-मुंड एक बड़ी भारी दैत्य-सेना लेकर हिमालय की ओर भगवती ने भी एक और भयंकर दैत्य दल और एक और अकेले चले। उनके दल के आतंक से सारे देश में हाहाकार मच गया।

Chaitra Navaratri
चैत्र नवरात्रि कथा

सिंह को देखकर क्रोधपूर्वक जो भौंहें चढ़ाई तो क्रोध स्वरूप, कराल कृत्यशक्ति काली अपने-आप उत्पन्न हो गई। काली ने आदिशक्ति को प्रणाम कर अपनी प्रेत, पिशाच और योगिनी सेना समेत दानव-दल पर आक्रमण कर दिया।

भगवती काली की भयानक मूर्ति देखकर दैत्य-दल तो सशंक होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया, परन्तु चंड-मुंड ने साहस कर कालिका का सामना किया। उसने काली पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये, सब व्यर्थ हुए। अन्त में काली ने अपने विकराल खड्ग से चंड-मुंड के शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिये और वह उनका रुधिर पान करने लगीं।

भूत-प्रेत वेतालादि से बचे हुए दैत्य काली के हाथों चंड-मुंड का परिणाम देखकर राजा के समीप दौड़े गये। चंड-मुंड का मरना सुनकर शुम्भ अपने अमात्य रक्तबिन्दु को सम्पूर्ण दैत्य-दल समेत शक्ति का संहार करने के लिए सुमेरु-शिखर पर भेजा।

आज्ञा शिरोधार्य कर रक्तबिन्दु असंख्य सेना समेत सुमेरु-शिखर के उपकंठ में जा पहुंचा। दैत्य-दल को देखकर शक्ति भगवती ने विचार किया कि अकेली काली सब का सामना नहीं कर सकती। चित्त में ऐसा विचार आते ही भगवती के मुख से जाज्वल्यमान ज्वाला-स्वरूप शक्ति की उत्पत्ति हुई। उस आदि-शक्ति की प्रबल शक्ति से हंसवाहिनी ब्रह्म-शक्ति, गरुडारूढ़ विष्णु-शक्ति, नन्दीवाहिनी शिव-शक्ति और गजारूढ़ इन्द्र-शक्ति आदि सम्पूर्ण देवताओं की भिन्न-भिन्न शक्तियां आप से आप प्रकट हो गई। उन्होंने आदि-शक्ति को सिर नवाकर आज्ञा मांगी। शक्ति ने शत्रु सेना पर आक्रमण करने की आज्ञा दी।

जगज्जननी की आज्ञा पाकर सम्पूर्ण देवों की दिव्य शक्तियों ने दैत्य-दल का संहार करना आरम्भ किया। विभिन्न देव-शक्तियों की संयुक्त मार से घबरा कर योद्धाओं समेत ताजी फौज को रणक्षेत्र में भेजा। खासतौर से हाथियों की फौज आगे करके उसने विकट व्यूह-बद्ध हो आक्रमण किया। उस समय भगवती ने अपने वज्रायुध से समस्त दानव सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। केवल इने-गिने सरदार खेत में खड़े रह गये।

ऐसी दशा में रक्तबिन्दु स्वयं अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सजकर युद्ध-क्षेत्र में पहुंचा। उसमें खास गुण यह था कि जहां कहीं उसके रुधिर का एक बूंद गिर पड़ता था, वहां एक नवीन रक्तबिन्दु (दानव) उत्पन्न हो जाता था। उसकी इस अलौकिक करामात के सामने समस्त देव-शक्तियां परास्त हो गई।

तब सब देवताओं ने व्याकुल होकर अनन्य शक्ति की आराधना की। उसी समय उनकी इच्छा से कालिका शक्ति अपनी योगिनी सेना समेत अग्रसर हुई। उसने अपने खड्ग से उस दानव का सिर काट डाला और योगिनियों ने उसका रुधिर पीना आरम्भ किया। इससे रक्तबिन्दु के किसी अंश का एक भी बिन्दु धरती में गिरने ही न पाया। अन्त में भगवती की काली शक्ति ने असली रक्तबिन्दु को भी मार डाला।

रक्तबिन्दु का मरना सुनकर शुम्भ को अति क्षोभ हुआ। अपने बड़े भाई को मन- मलीन देखकर निशुम्भ ने महाशक्ति का सामना करने का बीड़ा उठाया और वह सम्पूर्ण चतुरंगिनी सेना सहित सुमेरु-शिखर की ओर चढ़ दौड़ा। उसके मुकाबले में सम्पूर्ण देव-शक्तियों ने अतुल पराक्रम दिखाया, भगवती ने उस प्रबल दैत्य को भी मौत के घाट उतार दिया।

भाई के रण में मरण सुनकर शुम्भ स्वयं आदि-शक्ति से युद्ध करने के लिए रण- क्षेत्र में आया। उसने भी अपने प्रबल पराक्रम से देव सेना को व्याकुल कर दिया; परन्तु अन्त में उसकी भी वही गति हुई, जो सब दानवों की हो चुकी थी।

यह कथा कहकर ऋषि ने राजा और उसके साथी वैश्य को भगवती की आराधना करने की विधि बताई जिसे सुनकर दोनों एक नदी के तट पर बैठकर तप में लीन हो गये। तीन वर्ष के पश्चात् भगवती ने उन्हें दर्शन देकर वरदान दिया।

वैश्य को तो उसी समय ज्ञान प्राप्त हो गया और वह संसारी मोह से निवृत्त होकर आत्म-चिन्तन में प्रवृत्त हो गया। राजा ने राज-सिंहासन पर बैठकर अपने राज में यह ढिंढोरा पिटवाया कि आश्विन मास तथा चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में प्रत्येक मनुष्य घट-स्थापनपूर्वक आदि-शक्ति की उपासना तथा आराधना किया करे। उसी समय से संसार में नवरात्रि की पूजा की प्रथा चली है।