Santan Saptami 2023: भाद्रपद शुक्ल (Bhadrapada Shukla) सप्तमी को संतान सप्तमी (Santan Saptami) व्रत किया जाता है। इसे मुक्ताभरण व्रत (Muktabharan Vrat) भी कहते हैं। यह व्रत मध्याह्न तक होता है । मध्याह्न को चौक पूरकर शिव-पार्वती (Shiva-Parvati) की स्थापना करे और हे देव ! जन्म-जन्मान्तर के पाप को मोक्ष पाने तथा खण्डित सन्तान पुत्र पौत्रादि की वृद्धि के हेतु मैं मुक्ताभरण व्रत करके आपका पूजन करती हूं, कहकर संकल्प करे।
संतान सप्तमी व्रत, कथा, पूजा विधि (Santan Saptami Vrat, Katha)
पूजन के लिए चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, नारियल (sandalwood, akshat, incense, lamps, offerings, pungifal, coconut) आदि सम्पूर्ण सामग्री प्रस्तुत रखे। नैवेद्य भोग के लिए खीर-पूड़ी और खासकर गुड़ डाले हुए पुवे बनाकर रखे। रक्षा बन्धन के लिए डोरा भी हो। कोई-कोई डोरे के स्थान तैयार सन्तान सप्तमी व्रत 66 घर सोने-चांदी की चूड़ियां रखती हैं या दूब का डोरा कल्पित कर लेती हैं।
संतान सप्तमी कब मनाई जाती हैं (Santan Saptami Day)
स्त्रियों को चाहिए कि वे यह संकल्प करें-हे देव ! मैं जो यह पूजा आपकी भेंट करती हूं, उसे स्वीकार कीजिये। इसी प्रकार शिवजी के सामने रक्षा का डोरा या चूड़ी रखकर और ऊपर कहे हुए क्रम से, आवाहन से लेकर फूल-समर्पण तक, पूजा अर्पण करके नीरांजन पुष्पांजलि और प्रदक्षिणा करे और नमस्कार करके यह प्रार्थना करे – हे देव ! मेरी दी हुई पूजा स्वीकार करते हुए मेरी बनी बिगड़ी भूल-चूक क्षमा कीजिये। तदनन्तर डोरे को शिवजी को समर्पण करके निवेदन करे हे प्रभु ! इस पुत्र- पीत्र-वर्द्धनकारी डोरे को ग्रहण कीजिये। उस डोरे को प्रार्थनापूर्वक शिवजी से वरदान के रूप में लेकर आप धारण करे। फिर कथा सुने । मास शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन मनाई जाने वाली इस व्रत की कथा प़ॉपुलर है।
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संतान सप्तमी व्रत की कथा (Santan Saptami Vrat Katha)
कथा – श्रीकृष्ण भगवान राजा युधिष्ठिर से कथा प्रसंग वर्णन करते हैं कि मेरे जन्म लेने से पहले एक बार मथुरा में लोमश ऋषि आये थे। मेरे माता-पिता वसुदेव-देवकी ने उनकी विधिवत् पूजा की। तब ऋषिवर ने उनको अनेक कथाएं सुनाईं। फिर वह बोले-हे देवकी ! कंस ने तुम्हारे कई पुत्रों को जन्मते ही मरवा डाला है, इस कारण तुम पुत्र-शोक से दुःखी हो। इस दुःख से मुक्ति पाने के लिए तुम मुक्ताभरण व्रत करो।
जैसे राजा नहुष की रानी चन्द्रमुखी ने यह व्रत किया और उसके पुत्र नहीं मरे, वैसे ही यह व्रत पुत्र-शोक से तुम्हें मुक्त करेगा। इसके प्रभाव से तुम पुत्र सुख को प्राप्त होगी, इसमें संशय नहीं ।” तब देवकी ने पूछा- “हे ब्राह्मण ! जो राजा नहुष की रानी चन्द्रमुखी थी, वह कौन थी और उसने कौन-सा व्रत किया था ? उस व्रत को कृपाकर विधिपूर्वक कहिये।” तब लोमशजी ने यह कथा कहीं- अयोध्यापुरी में नहुष नाम का एक प्रतापी राजा था। उसकी अति सुन्दरी रानी का नाम चन्द्रमुखी था। उसी नगर में विष्णुगुप्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी सर्वगुणसम्पन्ना स्त्री का नाम रूपवती था। उक्त दोनों स्त्रियों में परस्पर बड़ी प्रीति थी। एक दोनों सरयूजी में स्नान करने गई। वहां उन्होंने और भी बहुत-सी स्त्रियों को स्नान करते देखा।
स्नान करने के बाद वे मण्डल बांधकर बैठ गईं। फिर उन्होंने पार्वती समेत शिवजी को लिखकर गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि से उनकी पूजा की। जब वे पूजा करके घर को चलने लगी, तब उन दोनों (रानी और ब्राह्मणी) ने उनके पास जाकर पूछा किसका और क्यों पूजन कर रही थीं ? कि तुम उन्होंने उत्तर दिया कि हम गौरी समेत शिवजी का पूजन कर रही थीं। उनका डोरा बांधकर हमने अपनी आत्मा उन्हीं को अर्पण कर दी है। तात्पर्य यह है कि हम लोगों ने यह संकल्प किया है कि जब तक जियेंगी, यह व्रत करती रहेंगी। यह सुख-सन्तान बढ़ाने वाला मुक्ताभरण व्रत सप्तमी को होता है । इस सुख-सौभाग्यदाता व्रत को हम लोग करती हैं।
स्त्रियों की बातें सुनकर रानी और उसकी सखी दोनों ने आजन्म सप्तमी का व्रत करने का संकल्प करके शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया परन्तु घर पहुंचकर उन्होंने अपने किये हुए संकल्प को भुला दिया। परिणाम यह हुआ कि जब वे मरीं तब रानी बानरी हुई और ब्राह्मणी मुर्गी हुई। कुछ समय बाद पशु-शरीर त्याग कर वे पुनः मनुष्य योनि में जन्मीं। रानी चन्द्रमुखी तो मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की प्यारी रानी हुई और ब्राह्मणी एक ब्राह्मण के घर में जन्मी । इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी हुआ और ब्राह्मणी भूषणा नाम से प्रसिद्ध हुई। भूषणा राजपुरोहित अग्निमुख को ब्याही गई।
इस जन्म में भी रानी और पुरोहितनी दोनों में परस्पर प्रीति और सख्य-भाव था। व्रत को भूल जाने के कारण यहां भी रानी वयस में उसको एक बहरा और गंगा पुत्र जन्मा, परन्तु वह भी नौ वर्ष का होकर मर गया। परन्तु व्रत को याद रखने और नियमपूर्वक अपुत्रा व्रत करने के कारण भूषणा के गर्भ से सुन्दर और नीरोग आठ पुत्र । उत्पन्न हुए। रही। मध्य
रानी को पुत्र-शोक दुःखी जानकर पुरोहितनी उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी को ईर्ष्या उत्पन्न हुई। तब उसने पुरोहितनी विदा करके उसके पुत्रों को भोजन के लिए बुलाया और उनको को सन्तान सप्तमी व्रत भोजन में विष खिलाया। परन्तु व्रत के प्रभाव से वे नहीं मरे। इससे रानी को बहुत क्रोध आया। तब उसने नौकरों को आज्ञा दी कि वै पुरोहितानी के पुत्रों को जल में ढकेल दें।
पूजा के बहाने यमुना के किनारे ले जाकर रानी के दूतों ने वैसा ही किया। परन्तु व्रत के प्रभाव से यमुनाजी उथली हो गयीं और ब्राह्मण-बालक बाल-बाल बच गये। तब तो रानी ने जल्लादों को आज्ञा दी कि वे ब्राह्मण-बालकों को वध-स्थान में ले जाकर मार डालें । परन्तु जल्लाद आघात करने पर भी ब्राह्मण-बालकों को न मार सके। यह समाचार सुनकर रानी को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब उसने पुरोहितनी को बुलाकर पूछा कि ऐसा तूने कौन-सा पुण्य किया है कि तेरे बालक मारने से भी नहीं मरते ?
इस प्रश्न के उत्तर में पुरोहितनी बोली कि आपको पूर्वजन्म की बात याद नहीं है, परन्तु मुझे जो मालूम है सो कहती हूं। पहले जन्म में तुम अयोध्या के राजा की रानी थीं और मैं तुम्हारी सखी थी। हम तुम दोनों ने सरयू किनारे श्रीशिव-पार्वती के पूजन का डोरा बांधकर आजन्म सप्तमी का व्रत करने का संकल्प किया था। परन्तु फिर व्रत करना भूल गयीं। मुझे अन्तिम समय में व्रत का ध्यान आ गया, इस कारण मैं मरकर बहु सन्तान वाली कुक्कुटी हुई और तुम बानरी हुईं। पक्षि-योनि में व्रत कर नहीं सकती थी, परन्तु व्रत का स्मरण मात्र रखने से मैं इस जन्म में नीरोग और बहु सन्तानवाली हूं। मैं अब भी व्रत करती हूं। उसी के प्रभाव से मेरी सन्तानें स्वस्थ और दीर्घायु हैं ।
पुरोहितानी के कहने से रानी को भी अपने पूर्व जन्म का हाल स्मरण आ गया और वह उसी समय से नियमपूर्वक व्रत करने लगी। तब उसके कई पुत्र-पौत्रादि हुए और अन्त में उन दोनों ने पाया, उसी प्रकार तुम भी इस व्रत को करने से सन्तान सुख शिव-लोक का वास पाया। लोमशजी बोले, हे देवकी ! जिस प्रकार रानी चन्द्रमुखी ने फल पाओगी, यह निश्चय है ।
तब देवकी ने पूछा कि हे मुनिवर ! इस सन्तानदाता और | मोक्षदाता व्रत की विधि कृपा करके कहिये । लोमशजी ने कहा कि भादों शुक्ल सप्तमी को नदी या ताल में स्नान करके, मण्डल में शिव-पार्वती की प्रतिमा लिखकर उसका विधिवत् पूजन करो और शिवजी के नाम का डोरा बांधकर यह संकल्प करो कि यह जीवन हमने भी शिवजी को समर्पण किया। फिर सदैव व्रत का स्मरण रखने के लिए शिवजी के डोरे को सोने या चांदी का बनवाकर सदैव हाथ में पहने रहो और हर सप्तमी को या महीने में एक बार शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अथवा साल में एक या भादों मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को व्रत रखकर उसका पूजन करो।
सौभाग्यवती स्त्रियों को वस्त्र और सौभाग्य-सूचक पदार्थ दान दिया करो। व्रत के दिन खुद भी पुआ भोजन करो। और पुत्रों तथा सौभाग्यवती स्त्रियों को भोजन कराओ। प्रति वर्ष व्रत की शान्ति विधिपूर्वक करो, तो निश्चय है कि तुमको प्राप्त होगी। उत्तम सन्तान श्रीकृष्ण बोले- “हे युधिष्ठिर ! इस प्रकार सन्तान सप्तमी के व्रत करने से तब मैंने देवकी के गर्भ से अवतार लिया। बस इसीसे समझ लो कि इस व्रत का कितना अधिक माहात्म्य है।”
FAQ
Q : इस साल संतान सप्तमी कब है ?
Ans : 22 सितंबर को
Q : संतान सप्तमी इस साल कब मनाया जाएगा ?
Ans : भाद्प्रद मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन
Q : संतान सप्तमी के दिन किसकी पूजा की जाती है ?
Ans : विष्णु, शिव एवं पार्वती जी की पूजा की जाती है.
Q : संतान सप्तमी के व्रत के दिन माताएं क्या खा सकती हैं?
Ans : इस दिन माताएं पुआ का भोग लगाती है और उसी को खाती है. इसके अलावा कुछ भी नहीं खाती है.
Q : संतान सप्तमी व्रत क्यों रखा जाता है ?
Ans : महिलाएं अपने पुत्र की लंबी आयु एवं सुख समृद्धि के लिए इस दिन व्रत करती है.