Solah Somwar Vrat Ki Puja Vidhi, Katha aur Aarti: साधारणतया सोमवार का व्रत दिन के तीसरे पहर तक रखा जाता है। इस व्रत में फलाहार या पारण का कोई खास नियम नहीं है। किन्तु यह जरूरी है कि दिन-रात केवल एक ही बार भोजन किया जाय।
Solah Somwar Vrat Ki Puja Vidhi, Katha aur Aarti
सोलह सोमवार पूजा की विधि (Solah Somwar Vrat Ki Puja Vidhi)
सोमवार के व्रत में शिव-पार्वती का पूजन होता है। इस व्रत को करने वाले को चाहिए कि वह सोमवार को प्रातःकाल काले तिल का तेल लगाकर स्नानादि करे। कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियां सोमवार को जो कथा कहती हैं, वह सोमवती अमावस्या से सम्बन्ध रखती हैं। इसके सम्बन्ध में यह प्रथा है कि भले घर की स्त्रियां सोमवती अमावस्या को पीपल के या तुलसी के वृक्ष की एक सौ आठ परिक्रमा करती हैं।
सोमवार के व्रत तीन प्रकार के हैं-साधारण प्रति । सोमवार, सौम्य प्रदोष और सोलह सोमवार विधि तीनों की एक जैसी है। शिव पूजन के पश्चात कथा सुननी चाहिए।

प्रदोष व्रत, सोलह सोमवार, प्रति सोमवार कथा तीनों की अलग- अलग है जो आगे लिखी गई है। जो भी मनुष्य विधिपूर्वक सोमवार के व्रत को करता है, उसके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। अंत में वह शिवलोक में जाकर शिवजी के उत्तम सुखों को भोगता है।
सौभाग्यवती स्त्रियां सम्पूर्ण शृंगार करके तुलसी को परिक्रमा देती हुई, कोई पदार्थ, जैसे लड्डू, छुहारा, आम, अमरूद इत्यादि फल या नगद पैसा, एक-एक प्रत्येक परिक्रमा के अन्त में तुलसी या पीपल के वृक्ष पर रखती जाती हैं। यह परिक्रमाओं की गणना की विधि है। पुनः वह पदार्थ ब्राह्मणों में वितरण कर दिया जाता है।
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परिक्रमा कर चुकने के बाद धोबिन की मांग सिन्दूर से भरकर उसके ललाट में बूंदा लगाया जाता है। उसके आंचल में कुछ मिठाई और पैसे डालकर सौभाग्यवती उसके पैर पड़ती है। तब धोबिन अपनी मांग का सिन्दूर पैर पड़ने वाली की मांग में लगा देती है और अपने ललाट का बूंदा भी लगा देती है। इसी को सुहाग देना कहते हैं। इसके उपलक्ष में जो कथा कही जाती है, वह इस प्रकार है-
सोमवार व्रत की कथा-1 (Somwar Vrat Ki Katha)
एक घर में मां-बेटी और बहू तीन स्त्रियां थीं। उस घर में प्रायः एक साधु भीख मांगने आया करता था। जब कभी बहू उसे भीख देने जाती, तब वह भीख लेकर उसे यह आशीर्वाद दिया करता था कि दूधो नहाओ, पूतों फलो। परन्तु जब लड़की भीख देने जाती, तब साधु कहा करता कि धर्म बढ़े गंगा स्नान।
एक दिन लड़की ने अपनी माता से कहा कि जो साधु भीख लेने आता है, वह हम दोनों को दो तरह से आशीर्वाद दिया करता है। यह सुनकर माता ने एक दिन बाबा से प्रश्न किया कि आप लड़की को जो आशीर्वाद देते हैं, उसका क्या आशय है?
तब साधु ने कहा कि इस लड़की का सौभाग्य खण्डित है। इसी कारण में ऐसा कहता हूं। इस पर माता ने साधु से कुछ उपाय पूछा। साधु ने कहा कि तुम्हारे गांव की जो सोमा नाम की धोबिन है, उसके घर की यह लड़की टहल किया करे। यदि और कुछ न बन पड़े तो जहां उसके गधे बंचते हैं, उसी जगह को यह रोज झाड़-बुहार कर साफ कर दिया करे। वह पतिव्रता स्त्री है। उसके आशीर्वाद से इस लड़की का सौभाग्य अटल हो सकता है। साधु यह सलाह देकर चला गया।
वह लड़की उसी के दूसरे दिन से सोमा धोबिन के घर जाकर नित्य गधों की लीद उठाकर फेंक आती और थान साफ करके चली आती थी। धोबी धोबिन दोनों को आश्चर्य था कि हमारे गधों की थान कौन साफ कर जाता है।
एक दिन यह रहस्य जानने के लिए धोबिन छिप कर बैठ रही। ज्योंही लड़की गधे की लीद फेंक चुकी और झाडू लेकर झाड़ने लगी, त्योंही धोबिन ने उसका हाथ पकड़ लिया और उससे कहा कि तू भले घर की लड़की है, मेरी टहल क्यों करने आती है?
तब लड़की ने साधु की कही हुई सब बातें उसे बताई। सोमा धोबिन ने उसे आशीर्वाद देकर विदा किया। पुनः उसके घर जाकर उसकी माता से कहा कि जब इस लड़की की शादी हो तब फेरे (भांवरें) पड़ने के समय मुझे बुला लेना। मैं इसको अपना सौभाग्य दूंगी।
कालान्तर से जब लड़की के विवाह का समय आया, तब उसकी माता ने सोमा धोबिन को निमंत्रण दिया। सोमा अपने घर से लड़की के घर जाते समय अपने परिवार के लोगों से कह गई कि मेरी गैरहाजिरी में यदि मेरा पति मर जाय, तो जब तक मैं ना आऊं, उसकी दाह-क्रिया न करना।
जिस समय सोमा ने लड़की की मांग में अपनी मांग का सिन्दूर लगाया, उसी समय उसका पति मर गया। घर के लोगों ने विचारा कि यदि वह आ जायगी, तो अधिक विलाप-कलाप करेगी। सम्भव है कि पति के साथ सती होने को तैयार हो जाय। इसलिए यही उचित है कि उसके आने से पहले लाश को जला दिया जाय। इसी विचार से वे धोबी की लाश को रथी पर रखकर ले चले।
इधर लोग धोबी के शव को लिए हुए श्मशान की ओर जा रहे थे, उधर से सोमा घर को वापस आ रही थी। उसने पूछा कि यह क्या है और कहां लिए जा रहे ? लोगों ने कहा कि तेरे पति को जलाने के लिए ले जाते हैं। पास ही एक पीपल का पेड़ था।
धोबिन ने अपने पति के शव को उसी जगह रखवा लिया। उसके हाथ में उस समय बेई (मिट्टी का पुरवा जो ब्याह के घर से उसे मिला था) थी। उसने उसको फोड़कर उसके एक सौ आठ टुकड़े किये।
अपने पतिव्रत धर्म का ध्यान और शिव-पार्वती का स्मरण करते हुए उसने पीपल के वृक्ष की एक सौ आठ परिक्रमा कीं। इसके बाद जब उसने अपनी पैंती (तर्जनी) चीरकर अपना रक्त पति के शव पर छिड़क दिया तब वह उठ बैठा।
कहा जाता है कि इसी घटना के बाद विवाह में धोबिन से सुहाग के लिए आने की प्रथा चली है। कार्तिक स्नान के सम्बन्ध में स्त्रियां जो सोमवार को तुलसी या पीपल की परिक्रमा करती हैं, उसकी विधि इस प्रकार है-पहले सोमवार को धान और पानी से परिक्रमा की जाती है, दूसरे को दूध के पिण्ड से, तीसरे को वस्त्र से और चौथे को धातु के बर्तन और जेवर से। जिसको यह सब करने की गुंजाइश नहीं होती, वे किसी भी चीज से परिक्रमा करके विधि पूरी करती हैं।
सोमवार व्रत की कथा-2 (Somwar Vrat Ki Katha)
एक बहुत धनवान साहूकार था, जिसके घर धन आदि किसी प्रकार की कमी नहीं थी। किंतु उसको एक दुख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था। वह इसी चिंता में रात-दिन व्यतीत कर रहा था।
वह पुत्र की कामना के लिए प्रति सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था तथा सायंकाल को शिव मंदिर में जाकर शिवजी के श्री विग्रह के सामने दीपक जलाया करता था।
उसके इस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने भगवान शंकर से कहा कि महाराज! यह साहूकार आपका अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है। आपको इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।
शिवजी ने कहा- हे पार्वती ! यह संसार कर्मक्षेत्र है। किसान खेत में जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल काटता है। उसी प्रकार इस संसार में प्राणी जैसा कर्म करते हैं, वैसा ही फल भोगते हैं।
पार्वती जी ने अत्यंत आग्रह से कहा, “महाराज! जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको यदि किसी प्रकार का दुख है, तो आपको उसे अवश्य दूर करना चाहिए, क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुखों को दूर करते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यों करेंगे ?”

पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी प्रसन्न होकर कहने लगे, “हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है, इसी चिंता में यह अति दुखी रहता है। इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूं। किंतु यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक जीवित रहेगा। इसके पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। इससे अधिक मैं इसके लिए और कुछ नहीं कर सकता।
जब यह बातें साहूकार को ज्ञात हुई तो उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुख हुआ। वह पहले के समान ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा। कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें माह में उसके गर्भ से अति सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई।
साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई किंतु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जान कोई अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न ही किसी को यह भेद ही बताया। जब यह बालक 11 वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करूंगा। अपने पुत्र को काशीजी पढ़ने के लिए भेजूंगा।
फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात बालक के मामा को बुलाकर तथा उसको बहुत-सा धन देकर कहा- तुम इस बालक को काशी पढ़ने के लिए ले जाओ और मार्ग में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जाना।
वह दोनों मामा-भांजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे। मार्ग में एक शहर पड़ा। उस शहर में एक राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड़का जो विवाह कराने के लिए बारात लेकर आया था, वह एक आंख से काना था।
उसके पिता को इस बात की बड़ी चिंता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें। इस कारण जब उसने अति सुंदर सेठ के लड़के को देखा, तो उसने मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाए।
ऐसा विचारकर वर के पिता ने उस लड़के और मामा से बात की तो वे राजी हो गए। फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहनाकर तथा घोड़ी पर चढ़ाकर द्वार पर ले गए। सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया। फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाए तो क्या बुराई है?
ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा- यदि आप फेरों का और कन्यादान के कार्य को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होंगी। मैं इसके बदले में आपको बहुत सारा धन दूंगा, तो उन्होंने स्वीकार कर लिया।
विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से संपन्न हो गया। किंतु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुंदड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है, किंतु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आंख से काना है। मैं काशी पढ़ने जा रहा हूं।
लड़के के जाने के पश्चात राजकुमारी ने जब अपनी चुंदड़ी पर ऐसा लिखा पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है। मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है। जिसके साथ मेरा विवाह संपन्न हुआ है, वह तो काशी पढ़ने गया है।
राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गई। उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी पहुंच गए। वहां जाकर मामा ने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना प्रारंभ कर दिया।
जब लड़के की आयु बारह वर्ष पूरी हो गई, उस दिन उसके मामा ने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा, ‘मामा जी, आज मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।’
यह सुनकर मामा ने कहा, ‘तुम अंदर जाकर सो जाओ।’ इस प्रकार लड़का अंदर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए। जब उसके मामा ने अंदर आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा था।
यह देखकर उसे हुआ दुख और उसने सोचा कि यदि मैं अभी रोना-पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा। अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरंभ कर दिया।
संयोगवश उसी समय शिव-पार्वती जी उधर से आ रहे थे। जब उन्होंने जोर-जोर से रोने की आवाज सुनी तो पार्वती जी कहने लगीं – महाराज! कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिए। जब शिव-पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मुर्दा पड़ा था।
पार्वती जी कहने लगी- महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था। शिवजी कहने लगे- हे पार्वती! इसकी जितनी आयु थी, उतनी यह भोग चुका है।
तब पार्वती जी ने कहा- हे महाराज! कृपा करके इस बालक को और आयु प्रदान कीजिए, नहीं तो इसके माता-पिता दुखी होकर मर जाएंगे। पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का पुनः जीवित हो गया। शिव-पार्वती कैलाश चले गए।
वह लड़का और उसका मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर लौट चले। मार्ग में उसी शहर में आए, जहां लड़के का विवाह हुआ था। वहां पर आकर उन्होंने यज्ञ आरंभ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसका बड़ा आदर-सत्कार किया तथा बहुत से दास-दासियों सहित आदरपूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया।
जब वे अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा- मैं पहले घर जाकर खबर कर आता हूं। जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत पर बैठे थे और उन्होंने यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जाएंगे, नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण दे देंगे।
इतने में उस लड़के के मामा ने आकर जब यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्वास नहीं हुआ। उसके मामा ने शपथपूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन लेकर आया है तो सेठ ने आनंद के साथ उसका स्वागत किया और फिर वे सब बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे।
इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता और सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। अंत में नाना प्रकार के सुखों को भोगकर वह शिवलोक को प्राप्त होता है।
सोलह सोमवार व्रत की कथा (Solah Somwar Ki Katha)
विदर्भ देश के अंतर्गत अमरावती नाम की अतीव रमणीक नगरी अमरपुरी में वहां के महाराज ने शिवजी का एक सुवर्ण का सुंदर मंदिर बनवाया था। उस मंदिर में भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ सदा निवास करते थे।
उस मंदिर का पुजारी बड़ी नीच प्रकृति का था। मंदिर में जो शिव भक्त, भगवान शंकर और भगवती पार्वती के दर्शनों के निमित्त आते थे, उन्हें वह नशीली वस्तुएं खिला और पिलाकर लूट लेता था। इस प्रकार वह रात-दिन पाप में डूबा रहता था ।
एक दिन शिव और पार्वती घूमते हुए उस मंदिर के निकट आए। पार्वती ने जब पुजारी की धूर्तता देखी, तो उन्होंने उसे कोढ़ी हो जाने का श्राप दे दिया। श्राप के प्रभाव से पुजारी तत्काल कोढ़ी हो गया। अपनी यह दशा देखकर वह बहुत दुखी हुआ। इस रोग के कारण वह पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा।
इस प्रकार के कष्ट भोगते हुए उसे बहुत दिन हो गए। दैवयोग से देवलोक की कुछ अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में पधारीं और पुजारी के कष्ट को देख बड़े दयाभाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगीं- पुजारी ने निःसंकोच सब बातें उनसे कह दीं।
वे अप्सराएं बोलीं- हे पुजारी! अब तुम अधिक दुखी मत होना। भगवान शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे। तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्तिभाव से करो। तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा।
अप्सराएं बोलीं- जिस दिन सोमवार हो, उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें। स्वच्छ वस्त्र पहनें, आधा सेर गेहूं का आटा लें। उसके तीन अंग बनाएं और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ का जोड़ा, चंदन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करें।
तत्पश्चात तीनों अंगों में से एक शिवजी को अर्पण करें और शेष दो को शिवजी का प्रसाद जानकर समस्त उपस्थित जनों में बांट दें और स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें। इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें।
तत्पश्चात सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनाएं। तद्नुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनाएं और शिवजी को भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटें। पीछे आप सकुटुंब प्रसाद लें तो भगवान शिवजी की कृपा से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।
ऐसा कहकर अप्सराएं स्वर्ग को चली गई। ब्राह्मण ने यथाविधि षोडश सोमवार व्रत किया तथा भगवान शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनंद से रहने लगा।
कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मंदिर में पधारे, तब ब्राह्मण को नीरोग देखकर पार्वती ने ब्राह्मण रोग मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार से व्रत कथा कह सुनाई। तब तो पार्वती जी अति प्रसन्न होकर ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछकर व्रत करने को तैयार हुई।
व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए, किंतु कार्तिकेय जी को अपने विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई। और माता से बोले-‘माताजी! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया, जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ।’
तब पार्वती जी ने वही षोडश सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई। तब कार्तिकेय जी बोले कि इस व्रत को मैं भी करूंगा, क्योंकि मेरा प्रियमित्र ब्राह्मण दुखी हृदय से परदेश गया है। हमें उससे मिलने की बहुत अभिलाषा है।
कार्तिकेय जी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया। मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेय जी से पूछा तो वे बोले- हे मित्र ! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था। अब तो ब्राह्मण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई। उन्होंने कार्तिकेय जी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहां के राजा की लड़की का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार शृङ्गारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ अपनी प्रिय पुत्री का विवाह कर दूंगा।
शिवजी की कृपा से ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया। नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी।

राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया और ब्राह्मण को बहुत सा धन और सम्मान देकर संतुष्ट किया। ब्राह्मण सुंदर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा।
एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्न किया। हे प्राणनाथ! आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया, जिसके प्रताप से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपको वरण किया? ब्राह्मण बोला- हे प्राणप्रिये! मैंने अपने मित्र कार्तिकेय जी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरूपवान भार्या की प्राप्ति हुई।
व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी। शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुंदर, सुशील, धर्मात्मा और विद्वान पुत्र उत्पन्न हुआ। माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए और उसका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे।
जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन उसने अपनी माता से प्रश्न किया कि मां तूने कौन-सा तप किया है, जो मेरे जैसा पुत्र तेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ। माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जानकर अपने किए हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि सहित पुत्र के सम्मुख प्रकट किया।
पुत्र ने सब प्रकार के मनोरथ पूर्ण करने वाले ऐसे सरल व्रत के बारे में सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि व्रत करने लगा। उसी समय एक देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसको एक राजकन्या के लिए वरण किया। राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण संपन्न ब्राह्मण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया।
वृद्ध राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राह्मण बालक राजगद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत भूप के कोई पुत्र नहीं था। राज्य का अधिकारी होकर भी वह ब्राह्मण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को करता रहा।
जब सत्रहवां सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने के लिए कहा। किंतु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की चिंता नहीं की। दास-दासियों द्वारा सब सामग्रियां शिवालय भिजवा दीं और आप नहीं गई।
जब राजा ने शिवजी का पूजन समाप्त किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई। राजा ने सुना कि हे राजा! अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सर्वनाश कर देगी।
आकाशवाणी को सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मंत्रियो! मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर देगी।
मंत्री आदि सब बड़े विस्मय और दुख में डूब गए क्योंकि जिस कन्या के साथ राज्य मिला है, राजा उसी को निकालने का जाल रचता है, यह कैसे हो सकेगा?
अंत में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया। रानी दुखी हृदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई। बिना पदत्राण, फटे वस्त्र पहने, भूख से दुखी धीरे-धीरे चलकर वह एक नगर में पहुंची।
वहां एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने को जाती थी। रानी की करुण दशा देख बोली- चल तू मेरा सूत बिकवा दे। मैं वृद्ध हूं, भाव नहीं जानती हूं। बुढ़िया की ऐसी बात सुन रानी ने बुढ़िया के सिर से सूत की गठरी उतार कर अपने सिर पर रख ली।
थोड़ी देर बाद आंधी आई और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया। बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया। अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण चटक गए। ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया।
इस प्रकार रानी अत्यंत दुख पाती हुई सरिता के तट पर गई तो सरिता का समस्त जल सूख गया। तत्पश्चात रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतर पानी पीने को गई। उसके हाथ से जल स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के सदृश्य जल असंख्य कीड़ों से युक्त एवं गंदा हो गया।
रानी भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल का पान करके एक वृक्ष की शीतल छाया में विश्राम करने लगी। वह रानी जिस वृक्ष के नीचे बैठी थी, उस वृक्ष के पत्ते तत्काल ही गिरने लगे।
वन तथा सरोवर के जल की ऐसी दशा देखकर गी चराते ग्वालों ने अपने गुंसाईं जी से, जो उस वन में स्थित मंदिर में पुजारी थे, सारी बातें कहीं। गुंसाईं जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुंसाईं के पास ले आए।
रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुंसाई जी जान गए, यह अवश्य ही विधि की गति की मारी कोई कुलीन अबला है। ऐसा सोच पुजारी जी ने रानी के प्रति कहा कि पुत्री मैं तुमको पुत्री के समान रखूंगा। तुम मेरे आश्रम में ही रहो। मैं तुमको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा। गुंसाईं के ऐसे वचन सुन रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहने लगी।
आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल को स्पर्श करती तो उसमें भी कीड़े पड़ जाते। अब तो गुंसाईं जी भी दुखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी! तेरे पर कौन से देवता का कोप हैं, जिससे तेरी ऐसी दशा हुई है?
गुंसाई जी की बात सुन रानी ने बताया कि मैंने पति की आज्ञा का उल्लंघन करके नौकर के हाथ पूजा की सामग्री मंदिर भिजवाई थी। तब शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए गुंसाईं जी रानी से बोले- हे पुत्री! तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार के व्रत को करो। उसके प्रभाव से इस कष्ट से मुक्त हो सकोगी।
गुंसाई की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिवत संपन्न किया और सत्रहवें सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया। ना जाने कहां-कहां भटकती होगी, उसे ढूंढना चाहिए।
यह सोच उसने रानी को तलाश करने चारों दिशाओं में अपने दूत भेजे। वे तलाश करते हुए गुंसाई जी के आश्रम में रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, किंतु गुंसाईं ने उनसे मना कर दिया। वे दूत चुपचाप लौट गए और आकर महाराज के सन्मुख रानी के पता लग जाने के बारे में बतलाने लगे।
रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गए. और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज! जो देवी आपके आश्रम में रहती है, वह मेरी पत्नी है। शिवजी के कोप से मैंने इसको त्याग दिया था। अब इस पर से शिव का प्रकोप शांत हो गया है। इसलिए मैं इसे ले जाने के लिए आपके पास आया हूं। आप इसे मेरे साथ चलने की आज्ञा दे दीजिए।
गुंसाईं जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी। गुंसाईं की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के साथ उसके राज्य की ओर लौटने लगी। उस समय नगर में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे।
नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे पर तोरण बंदनवारों से विविध- विधि से नगर सजाया। घर-घर में मंगल गीत होने लगे। पंडितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राजरानी का आह्वान किया। इस प्रकार रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया। महाराज ने अनेक तरह से ब्राह्मणों को दान आदि देकर प्रसन्न एवं संतुष्ट किया। याचकों को बहुत-सा धन-धान्य दिया। नगरी में स्थान- स्थान पर सदाव्रत खुलवाए, जहां भूखों को खाने को मिलता था।
इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग करता हुआ सोमवार के व्रत करने लगा। विधिवत शिव पूजन करते हुए वे इस लोक में अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्चात शिवपुरी को पधारे।
सोमवार के व्रत का फायदा
ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्वारा भक्ति सहित सोमवार का व्रत एवं पूजन इत्यादि विधिवत करता है वह इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अंत में शिवपुरी को प्राप्त होता है। यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है। इस व्रत को करने से वह सबकुछ सहज ही प्राप्त होता जाता है, जिसकी कामना मनुष्य करता है।
सोलह सोमवार की आरती (Solah Somwar Ki Aarti)
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अर्द्धांगी धारा
ॐ जय शिव ओंकारा॥
एकानन चतुरानन पंचानन राजे
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे
ॐ जय शिव ओंकारा॥
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे
तीनों रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहे
ॐ जय शिव ओंकारा॥
अक्षयमाला वन माला मुण्ड माला धारी
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी
ॐ जय शिव ओंकारा॥
श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे
सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे
ॐ जय शिव ओंकारा॥
कर में श्रेष्ठ कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता
जग-कर्ता जग-हर्ता जग पालन कर्ता
ॐ जय शिव ओंकारा॥
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका
ॐ जय शिव ओंकारा॥
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई गावे
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपत्ति पावे
ॐ जय शिव ओंकारा॥