Dasha Mata Vrat: कौन हैं दशा माता? कैसे करें व्रत, जानिए पूरी कथा

Dasha Mata Vratदशा माता का व्रत

Dasha Mata Vrat: दशा माता (Dasha Mata) का व्रत चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को किया जाता है। सुहागिन महिलाएं घर की सुख-शांति, सौभाग्य, समृद्धि और अपार धन संपत्ति के लिए दशा माता का व्रत रखती हैं। शास्त्रों के अनुसार इस दिन महिलाएं व्रत पूजन करके गले में एक खास डोरा पहनती हैं।

कौन हैं दशा माता? (Dasha Mata Kaun Hain)

हमारे महर्षियों ने अपने अनुभव से यह सिद्ध किया है कि मनुष्य अथवा किसी भी वस्तु की स्थिति का सहसा परिवर्तन किसी अलौकिक शक्ति द्वारा होता है। उसी शक्ति का नाम दशा है। जब मनुष्य की दशा अनुकूल होती है, तब उसका कल्याण होता है, जब प्रतिकूल दशा होती है, अच्छा काम करने से भी बुरा प्रभाव पैदा होता है। इसी दशा को दशा भगवती या दशारानी के नाम से सम्बोधन करके हमारे देश की स्त्रियां इसकी अनुकूलता के लिए इसका व्रत और पूजन करती हैं तथा उसके प्रति श्रद्धा बढ़ाने के लिए कथा भी कहती हैं।

Dasha Mata Vrat
दशा माता

कब रखा जाता है दशा माता का व्रत? (Dasha Mata Ka Vrat Kab Rakhen)

जब तुलसी के समान वृक्षों में, जो एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाया हुआ ना हो, वरन् जहां उगे वहीं हो, बाल निकले, कलोरी गाय बछड़ा जने, पहलीठी घोड़ी के बछैड़ा हो, स्त्री के प्रथम गर्भ से बालक उत्पन्न हो तब इन बातों का समाचार पाकर दशारानी के व्रत का संकल्प किया जाता है। किन्तु यह शर्त आवश्यक है कि बच्चे जो पैदा हुए हों, अच्छी घड़ी में हुए हो। ऐसी स्थिति में दशारानी का गंडा लिया जाता है। नौ सूत कच्चे धागे के और एक सूत व्रत रहने वाली के अंचलनके, इस प्रकार दस सूत का एक गंडा बनाकर उसमें गांठ लगाई जाती है।

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दिन-भर व्रत रहने के बाद शाम को गंडे की पूजा होती है। नौ व्रत तक तो शाम को पूजा होती है, परन्तु दसवें व्रत में मध्याह्न के पूर्व ही पूजा होती है। जिस दिन दशारानी का व्रत हो, उस दिन जब तक पूजा ना हो जाय, किसी को कोई वस्तु, यहां तक कि आग भी नहीं दी जाती। पूजा के पहले उस दिन किसी का स्वागत भी नहीं किया जाता।

Dasha Mata Vrat
दशा माता का व्रत

दशा माता पूजा की विधि (Dasha Mata Puja Ki Vidhi)

एक नोकवाले पान पर चन्दन से दशारानी की प्रतिमा का आभास अंकित किया जाता है। पृथ्वी पर चौक पूरकर उस पर पटा और पटा पर पान रखा जाता है। पान के ऊपर गंडे को दूध में बोरकर रख दिया जाता है। हल्दी और अक्षत से उसकी पूजा होती है और घी, गुड़, बताशा आदि का भोग लगता है।

हवन के अन्त में कथा कही जाती है। कथा हो चुकने के बाद पूजा की सामग्री को गीली मिट्टी के पिण्ड में रखकर मौन होकर उसे व्रत वाली भेंटती है, फिर आप ही उसे कुआं या ताल आदि जलाशय में सिराकर तब पारण करती है। पारण करते समय किसी से बोलना वर्जित है। जितना पारण सामने परोस ले, उसमें से कुछ छोड़ना भी नहीं चाहिए। थाली धोकर पी लेना चाहिए।

(Dasha Mata Vrat Katha)

दशा माता की पहली कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-1)

एक घर में सास-बहू रहती थीं। बहू का पति विदेश गया हुआ था। एक दिन सास ने बहू से गांव जाकर आग लाने और भोजन बनाने के लिए कहा। बहू गांव में आग लेने गई, तब किसी ने उसको आग नहीं दी और कहा कि जब तक दशारानी की पूजा ना हो जायगी आग ना मिलेगी।

बहू बेचारी खाली हाथ घर आई। जब सास ने उससे पूछा, तब बहू ने कण्डा उसके सामने पटक दिया और कहा कि गांव-भर में दशारानी की पूजा है, इसलिए कोई आग नहीं देता।

शाम को सास आग लेने के लिए गांव में गई, तब स्त्रियों ने उसे स्वागतपूर्वक बिठाया और कहा कि सवेरे बहू आई थी; परन्तु हमारे यहां पूजा नहीं हुई थी, इसी कारण आग नहीं दे सकी।

सास आग लेकर अपने घर के दरवाजे तक पहुंची ही थी कि एक व्यक्ति बंछवा लिये आया और उसके पीछे ब्याही कलोरी गाय आती दिखाई दी। उस स्त्री ने उससे पूछा कि यह गाय क्या पहलौटी ब्याई है ? आदमी ने कहा- “हां” उसने फिर पूछा कि बछवा है या बछिया ? उसने जवाब दिया कि बछवा है।

सास ने घर में जाकर बहू से कहा-आओ, हम तुम भी दशारानी के गंडे लें और व्रत रहें। दोनों ने गंडे लिये सवेरे से व्रत आरम्भ किया। नौ व्रत पूरे हो चुकने के बाद दसवें दिन गंडे की पूजा होती थी। सास-बहू दोनों ने मिलकर गोल-गोल बेले हुए, दस-दस अर्थात् कुल बीस फरे बनाये। इक्कीसवां एक बड़ा फरा गाय को दिया। पूजन करने के बाद सास-बहू दोनों पारण करने बैठीं।

उसी समय बुढ़िया का लड़का विदेश से आ गया। उसने दरवाजे से आवाज लगाई। सुनकर मां ने मन में कहा कि क्या हरज है, उसे जरा देर बाहर ठहरने दो। मैं पारण कर चुकूंगी, तब किवाड़ खोल दूंगी। परन्तु बहू को रुकने का साहस नहीं हुआ। अपनी थाली का अन्न इधर-उधर करके झट पानी पीकर वह उठ खड़ी हुई। उसने जाकर किवाड़ खोले।

पति ने उससे पूछा कि माता कहां है ? स्त्री ने कहा कि वह तो अभी पारण कर रही हैं। तब पति बोला कि मैं तेरे हाथ का जल अभी नहीं पिऊंगा, मैं बारह बरस में आया हूं। इतने दिनों तक ना जाने तू कैसी रही। माता आयेगी, वह जल लायेगी, तब जल पिऊंगा। यह सुनकर स्त्री चुपचाप बैठ रही ।

माता पारण करने के बाद जब अपनी थाली धोकर पी चुकी, तक वह लड़के के पास गई। लड़के ने सादर पैर छुए। माता उसे आशीर्वाद देती हुई भीतर घर में लिवा ले गई। माता ने थाली परोसकर रखी। बेटा भोजन करने बैठ गया। उसने हाथ में प्रथम ग्रास लिया ही था कि फरों के वे टुकड़े जो बहू ने अपनी थाली से फेंक दिये थे, अपने-आप उचककर उसके सामने आने लगे। उसने मां से पूछा—“यह सब क्या तमाशा है !” मां बोली, “मैं क्या जानू, बहू जाने।”

यह सब सुनते ही लड़का आग-बबूला हो गया। वह बोला—“ऐसी बहू मेरे किस काम की, जिसके चरित्र की तू साक्षी नहीं है। उसको अभी निकाल बाहर करो। यदि वह घर में रहेगी, तो मैं घर में ना रहूंगा।”

Dasha Mata Vrat
दशा माता

माता ने पुत्र को व्रत के पारण का सब हाल बताकर हर तरह से समझाया; परन्तु उसने एक भी ना मानी। वह यही कहता रहा कि उसे निकाल बाहर करो, तभी मैं घर में रहूंगा।

मां ने सोचा, बहू को थोड़ी देर के लिए बाहर कर देती हूं, इतने में लड़के का गुस्सा शांत पड़ जायगा। उसकी बात रह जायगी, तब फिर उसे घर में अंदर ले लूंगी। उसने बहू से कहा- “ देहरी के बाहर जाकर उसारे के नीचे खड़ी रह।”

जब बहू ओरी के नीचे खड़ी हुई तब उसारा बोला- “मुझे इतना भार छानी-छप्पर का नहीं है, जितना तेरा है, दशारानी के विरोधी को मैं छाया नहीं दे सकता।” तब वह वहां से चलकर घिरौंची के पास गई।

घिरौंची बोली- “मुझसे हटकर खड़ी हो, मुझे इतना झार घड़ों का नहीं है, जितना तेरा है ।”  वह वहां से भी हटकर घूरे पर जाकर खड़ी हुई। तब घूरा बोला- “मुझे इतना भार सब कूड़े का नहीं है, जितना तेरा है, चल हटकर खड़ी हो।”

इसी तरह वह जहां कहीं जाती, वहीं से हटाई जाती थी। इस कारण वह अपने जी में अत्यन्त दुःखी होकर जंगल को भाग गई। जंगल में भूखी-प्यासी फिरती-फिरती वह एक अन्धकूप में गिर पड़ी। गिरी सही, पर उसे चोट ना आई। वह नीचे जाकर बैठ गई।

उसी समय राजा नल जंगल में शिकार खेलते-खेलते वहां पहुंचे। उनके साथ के सब लोग बिछुड़ गये थे। वह प्यास के मारे भटकते हुए उसी कुएं पर आये, जिसमें उक्त स्त्री गिरी हुई थी।

राजा नल के भाई ने कुएं में लोटा डाला, तो स्त्री ने उस लोटे को पकड़ लिया। तब भाई ने राजा से कहा कि इस कुएं में तो किसी ने लोटा पकड़ रखा है। तब राजा ने कुएं की जगत पर जाकर कहा कि भाई! पुरुष है तो मेरे धर्म का भाई है, और यदि स्त्री है तो मेरी धर्म की बहन है। तुम जो कोई भी हो, बोलो। हम तुमको ऊपर निकाल लेंगे। स्त्री ने आवाज दी। इस पर राजा ने उसे कुएं से बाहर निकलवा लिया और वह उसे हाथी पर बिठाकर अपनी राजधानी में ले आये।

महाराज को शिकार से लौटकर महलों की ओर आते देखकर धावनों ने महारानी के पास जाकर खबर दी कि महाराज आ रहे हैं और एक रानी भी साथ ला रहे हैं। रानी अपने मन में बड़ी दुःखी हुई। वह सोच ही रही थी कि इसी बीच महाराज सामने आ पहुंचे। तब रानी ने हाथ जोड़कर विनय की “महाराज ! मुझसे ऐसी क्या बात बन पड़ी, जो आप मेरे रहते दूसरा विवाह कर लाये हैं।”

इस पर नल ने हंसकर उत्तर दिया कि वह जो आई है, तुम्हारी सौत नहीं, ननद है, मेरी बहन है। तुमको उसके साथ मेरी सगी बहन जैसा बर्ताव करना चाहिए। यह सुनते ही रानी का मुंह प्रसन्नता से कमल की तरह खिल उठा। उसने स्वगत कहा – “अब तक मैं ननद का सुख ना जानती थी, अच्छा हुआ जो भाग्य से ननद आ गई।”

राजा ने उसका नाम मुंहबोली बहन रखा और उसके लिए एक अलग महल बनवा दिया। उसी में वह आनन्द से रहने लगी। इसी प्रकार बहुत दिन बीत गये ।

एक दिन राजा की एक घोड़ी ब्याई। तब राजमहल की स्त्रियां बधाई गाने लगीं। मुंहबोली बहन ने अपनी दासियों से कहा- “बाहर जाकर देखो तो सही, किस बात की बधाई बज रही है।” उन्होंने बाहर से आकर कहा- “महाराज की घोड़ी अच्छी घड़ी में एक उत्तम बछेड़ा ब्याई है, उसी की बधाई गाई जा रही है।”

उसने पूछा – “पहलौठी ब्याई है या दूसरी-तीसरी बार?” उन्होंने जवाब दिया- “ब्याई तो पहले ही है।” तब उसने रानी के पास जाकर कहा- “आओ भावज! हम दोनों दशारानी के गंडे लें।”

रानी ने पूछा – “किसके गंडे और कैसे गंडे हैं, सो मुझे समझाओ।” तब वह बोली- “भाई की एक घोड़ी पहले-पहल बछेड़ा ब्याई है। दशारानी के व्रत का भी यही नियम है कि पहले-पहल जब गाय या घोड़ी या स्त्री का प्रसव सुने, तब गंडा लेकर व्रत आरम्भ करे। नौ व्रत करने के बाद दसवें दिन गंडे का पूजन करके विसर्जन करे।”

इसी के साथ उसने पारण के पदार्थ और नियम बतलाये। तब रानी बोली-“ननद। तुम्हारा व्रत तुमको फले। मैं पूड़ी और दूध की साढी खानेवाली रानी-महारानी, भला बनफरा, गोले की पपड़ी, खाकर कैसे रह सकती हूं ? ऐसा खाना खाय मेरी बला।”

स्त्री बोली – “भाभी ! मुझे जो चाहे सो कह लो, परन्तु व्रत के सम्बन्ध में कुछ भी मत कहो। मैं इसी व्रत के कारण मारी-मारी फिरी और तुम्हारे देश में आई हूं।” तब रानी ने उदासीनता के साथ कहा—“मुझे क्या पड़ी है। तुमको रुचे सो करो। मैं मना तो नहीं करती।”

स्त्री ने श्रद्धापूर्वक गंडा लिया। नौ दिन तक नौ व्रत किये, नौ कथाएं कहीं। दसवें दिन विधिवत् पूजन किया, गोला-फरा बनाये और शाम को पारण करने बैठी। उसी समय उसके पति को कुछ अनायास प्रेरणा-सी हुई। वह अपनी माता से आज्ञा लेकर घर से बाहर हो गया।

घूमता-फिरता वह राजा नल की राजधानी में जा पहुंचा और अपनी स्त्री का पता लगाने लगा। एक कुएं पर उसने औरतों को बातें करते सुना। एक बोली- “राजा हाल में मुंहबोली बहन लाये हैं। वह बड़ी ही सुन्दर स्त्री है, आजकल उसी का किया हुआ सब कुछ होता है।”

दूसरी बोली- “वह जैसी सुन्दर है, वैसी ही धर्मात्मा भी है। जब से आई है, तभी से उसने सदाव्रत खोल रखा है। जो उसके दरवाजे पर जाता है, सादर इच्छा भर भिक्षा पाता है।”

तीसरी बोली – “वह जैसी धर्मात्मा है, वैसी ही सदाचारिणी भी है।”

चौथी बोली—“वह जैसी सदाचारिणी है, वैसी ही सर्वप्रिया भी है, भीतर-बाहर से सभी लोग उससे खुश हैं।”

पांचवीं बोली –“यह तो सब है, परन्तु अब तक न पता चला कि वह कौन है, और कहां की है?”

स्त्रियों की बातें सुनकर वह साधु के वेश में राजा नल मुंहबोली बहन के महलों के द्वार पर जा पहुंचा। वहां जो उसने आवाज लगाई तो क्षेत्र के प्रबन्धकर्ता उसे भिक्षा देने लगे। उसने भिक्षा लेने से इन्कार कर दिया और कहा-“जब क्षेत्र देनेवाली खुद आकर भिक्षा देगी, तब लूंगा, नहीं तो नहीं लूंगा।”

तब लोगों ने उससे कहा-“इस समय वह दशारानी का व्रत करके पारण कर रही हैं। जब निश्चिन्त हो जायंगी, तब तुमको भिक्षा देंगी। तब तक ठहरे रहो।”

वह चुपचाप बैठा रहा। पारण कर लेने के बाद वह मुट्ठी में मोती भर कर आई, परन्तु सामने अपने पति को पल्ला फैलाये देखकर वह मुस्कराती हुई लौट गई। दोनों ने एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचान लिया।

रानी ने ननद को मुस्कराते देखकर पूछा- “जिस दिन से तुम आई हो, आज तक मैंने तुमको कभी हंसते नहीं देखा। आज इस विदेशी को देखकर हंसी हो इसका क्या कारण है?”

उसने उत्तर दिया कि वह विदेशी तो तुम्हारे ही घर का है। रानी ने पूछा- “तब वह ऐसे क्यों आये ?” उसने कहा- “अभी वह मेरा पता लगाने चले आये हैं।”

रानी ने राजा से कहा- “तुम्हारी मुंहबोली बहन के घर के लोग आये हैं।” राजा ने कहा- “उनसे कह दिया जाय कि अभी यहां से घर जाकर वहां से अपनी हैसियत से आयें, तब मैं बहन की विदाई करूंगा।”

तब स्त्री का पति घर को वापस चला गया। उसने माता से कहा- “तुम्हारी बहू राजा नल के यहां उसकी बहन होकर रहती है। नित्य सदाव्रत देती है और नियम-धर्म से दिन बिताती है।” तब माता ने आज्ञा दी कि तुम जाओ, उसे लिवा लाओ।

पति डोली-पीनस, बाजे, कहार आदि यथोचित सजधज के साथ फिर से राजा नल के नगर में गया। राजा ने समधी की हैसियत से उसका स्वागत किया और कुछ दिन उसे मेहमानी में रखकर विधिपूर्वक बहन की विदाई की।

जब वह महल से बाहर निकलकर चलने लगी, तब महल भी उसके पीछे-पीछे चलने लगे। तब रानी बोली “ननदजी ! तुम चली और मेरा महल भी ले चलीं। जरा लौटकर पीछे की ओर तो देखती जाओ।” ज्योंही उसने लौटकर देखा, त्योंही राजा का सम्पूर्ण राजसी वैभव सहसा लुप्त हो गया।

वह स्त्री तो अपने पति के साथ जाकर आनन्द से रहने लगी, परन्तु राजा नल का यह हाल हो गया कि वे राजा-रानी दोनों कमरी-कथरी ओढ़े फिरने लगे। उनके रूपकार पत्थर के हो गये और अटाले (भोजनालय) में पत्ते खड़खड़ाने लगे।

तब राजा नल बोले- “रानी ! जहां राज किया, वहां इस दशा में नहीं रहा जाता। इसलिए यहां से भाग चलना उचित है।” रानी पतिव्रता स्त्री थी। उसने राजा की आज्ञा मानना और उनकी विपत्ति में उनका साथ देना सहर्ष स्वीकार किया।

राजा-रानी दोनों महल से निकलकर चल दिये। चलते-चलते एक गांव के पास पहुंचे। वहां बेर के वृक्षों में अच्छे-अच्छे बेर लगे हुए थे। राजा-रानी दोनों भूखे थे। इसलिए वे बेरों के नीचे जाकर बेर बीनने लगे, परन्तु बेर लोहे के होते जाते थे।

राजा-रानी बेरों को उसी जगह फेंककर आगे बढ़े। किसान खेत काट रहे थे। राजा ने उन लोगों से कहा कि यदि आज्ञा दो, तो हम भी तुम्हारे साथ खेत काटें। उन्होंने जवाब दिया- “तुम लोग क्या काटोगे, दो मुट्ठी बालें ले लो और भूनते-खाते अपने रास्ते चले जाओ।” राजा ने बालें ले लीं और जब उनको भूनकर तैयार किया तब उनमें से अन्न के दानों के बजाय कंकड़ झड़ने लगे।

वह आगे चले तो एक कहार तरबूज बेच रहा था। उसने एक तरबूज राजा को दिया। वह राजा के हाथ में जाते ही काठ का हो गया। और भी आगे चले तो एक जगह सुरा गाय राह चलते यात्रियों को इच्छानुसार दूध देती थी। राजा ने जाकर गाय से दूध मांगा, तो गऊ ने चांदी का पात्र भर दिया। परन्तु रानी के हाथ में पात्र जाते ही काठ हो गया और उसमें का दूध रक्त हो गया। राजा-रानी गऊ के पैर पकड़कर आगे चले।

उधर से एक बनिया बनीजी करके चला आता था। उसने राजा नल को पहचान लिया। तब उसने राजा-रानी के भोजन-भर को सेर-भर आटा दिया। वे आटा लेकर एक नदी के किनारे गये। वहां रानी भोजन बनाने लगी और राजा स्नान करने लगा।

उसी नदी में मछुआरे मछलियां पकड़ते थे। उन लोगों ने राजा को चार मछलियां भेंट दीं। रानी ने रोटियां सेंककर और मछलियां भूनकर रखीं। जब आये और भोजन करने बैठे तब रोटियां ईंट हो गई और मछलियों उछलकर नदी में चली गई।

वहां से चलकर ये अपनी मुंहबोली बहन के यहां गये। बहन ने सुना कि उसके भाई भौजाई आये हैं। उसने पूछा कि कैसे आये ? औरतों ने कहा कि लटके चीथड़ा, भूकें कूकरा। ऐसे आये और कैसे आये ?

यह सुनकर उसे बड़ी लज्जा आई। उसने उन्हें एक कुम्हार के यहां ठहरा दिया। शाम को थाल सजाकर बहन खुद भावज से मिलने कुम्हार के घर गई। उसने सामने थाल रखा तो भावज ने कहा- “इस थाल में जो कुछ भी हों, कुम्हार के चक्के के नीचे रख दो और चली जाओ।”

वह थाल का सामान चक्के के नीचे रखकर चली गईं। थोड़ी देर में राजा ने रानी से पूछा- “कहो, बहन आई थी, कुछ लाई थी ?” रानी ने कहा- “आई तो थी, पर जो कुछ लाई थी, मैंने इसी चक्के के नीचे रखवा दिया है।”

राजा ने जो वहां देखा, तो कंकड़-पत्थरों के सिवा और कुछ भी ना था। राजा समझ गया कि यह सब कुछ कुदशा का कारण है। यह सम्भव नहीं कि जिस बहन को मैंने अन्धकूप से निकाला, सब कुछ दिया, वह मेरे लिये कंकड़-पत्थर लाये ।

तब वे लोग वहां से भी चलकर अपने मित्र के घर गये। मित्र ने सुना कि उसके मित्र आये हैं, तो उसने पूछा – “कैसे आये हैं ? लोगों ने कहा- “कमरी ओढ़ें, कथरी बिछावें, मांग-मांगकर खायें। ऐसे आये और कैसे आये?” मित्र ने दुःखी होकर कहा – “कोई हानि नहीं। जैसे आये, वैसे अच्छे आये, आखिर मित्र हैं। उनको महलों लिवा लाओ।”

राजा-रानी दोनों मित्र के महलों के भीतर जाकर ठहर गये। मित्र ने बड़े आदर भाव से उनका स्वागत किया, भोजन कराया और एक कमरे में उनके सोने के लिए पलंग बिछवा दिये। उस कमरे में खूंटी पर नौलखा हार टंगा हुआ था और पलंग की पाटी पर बिजुरियां खांड़ा रखा था।

आधी रात के समय राजा सो गये थे। रानी उनके पैर दबा रही थी। उसने देखा कि हार वाली खूंटी के पास दीवार में एक मोर का चित्र बना है। वह हार को धीरे-धीरे निगल रहा है और खांड़ा पलंग की पाटी में समाता जाता है। रानी ने राजा को जगाकर यह दृश्य दिखाया।

तब राजा ने कहा—“यहां से भी चुपचाप भाग चलना चाहिए, नहीं तो सवेरे चोरी का कलंक लगेगा। तब मित्र को क्या मुख दिखावेंगे?” निदान राजा रानी दोनों रात ही को उठकर भाग चले।

राज-दम्पत्ति चलते हुए एक अन्य राजा की राजधानी में पहुंचे। वहां अतिथि और भिक्षुओं को सदाव्रत दिया जाता था। राजा-रानी भी सदाव्रत लेने गये। उस समय सदाव्रत बन्द हो चुका था। वहां के अधिकारियों ने कहा कि यह लोग न जाने कहां के अभागे आये हैं कि उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं बचा। फिर भी उन्हें मुट्ठी-मुट्ठी चने दे दो।

इस प्रकार अनादर और कुवाच्य सहित दान लेना अस्वीकार करते हुए राजा-रानी वहां के दानाध्यक्ष की निन्दा करते हुए बोले कि ऐसी कंजूसी है तो सदाव्रत देने का नाम क्यों करते हैं ? इस पर दानाध्यक्ष ने कहा कि ये भिक्षुक बड़े घमण्डी मालूम होते हैं। भीख मांगते हैं और गालियां भी देते हैं। इनको हवालात में बन्द कर दो। इस तरह राजा-रानी दोनों एक कोठरी में बन्द कर दिये गये। मुट्ठी मुट्ठी चने दोनों को खाने के लिए मिलने लगे ।

जिस कोठरी में राजा-रानी कैद थे, उसी के सामने से आम रास्ता था। एक मेहतरानी राजा की घुड़सवार को पारकर उसी रास्ते से निकला करती थी। एक दिन वह बहुत देर से निकली। तब रानी ने उससे पूछा कि आज तुमने इतनी देर कहां लगाई ? वह बोली कि आज राजा की घोड़ी ब्याई थी। उसी की टहल में ज्यादा देर हो गई।

रानी ने पूछा कि घोड़ी पहली ब्याई है या दूसरी बार ?” मेहतरानी ने कहा- “पहली बार।” फिर रानी ने पूछा – ” बछेड़ा हुआ या बछेड़ी ?” उसने जवाब दिया- ” बछेड़ा हुआ है और अच्छी साइत में हुआ।”

तब रानी ने राजा से कहा- “एक बार मैंने तुम्हारी मुंहबोली बहन के गंडे का अनादर किया था। उसी दिन से अपनी दशा बदल गई है, इसीलिए आज मैं दशारानी का गंडा लेती हूं।” राजा ने कहा- सो तो ठीक है, परन्तु यहां पूजा का सामान कहां से आएगा? कैसे नियम-धर्म निभेगा?” रानी ने कहा-“वही दशारानी सब कुछ करेंगी। मैं तो उन्हीं का नाम लेकर गंडा लेती हूं। फिर जो होगा, देखा जायगा।”

तब नौ तार राजा की पाग के और एक तार अपने अंचल का लेकर रानी ने गंडा बनाया और उसी समय से व्रत करने का ठान लिया। थोड़ी देर में राजा खुद घोड़ी का बछेड़ा देखने के लिए उसी रास्ते से निकला।

राजा ने नल-दमयन्ती को कोठरी में बन्द देखकर पूछा कि ये लोग कौन हैं और किस अपराध के कारण यहां बन्द हैं? पहरेदारों ने कहा कि ये लोग भिक्षा लेने आये थे। आपको आशीर्वाद के बदले गालियां देते थे। इसी कारण थानाध्यक्ष ने इन लोगों को कैद करवा दिया था।

राजा ने कहा कि यह तो इनका कोई अपराध नहीं है। इनको मन मांगी भिक्षा नहीं मिली होगी, इसी वजह से गालियां देते होंगे। इनको सन्तुष्ट करना चाहिए ना कि कैद कर देना चाहिए! इनको अभी के अभी काल कोठरी से निकाल बाहर निकालो।

राजा की आज्ञानुसार उसी समय नल-दमयन्ती दोनों कोठरी से बाहर निकाले गये। राजा उनके पांव में पद्म और माथे में चन्द्रमा का चिह्न देखकर पहचान गया कि यह राजा नल और रानी दमयन्ती हैं। तब उसने विनम्र भाव से क्षमा मांगी और उन्हें हाथी पर बिठाकर अपने महल में ले गया।

कुछ दिनों बाद उस राजा का आतिथ्य सत्कार स्वीकार करके राजा नल पूरे सजधज से अपनी राजधानी की ओर चल पड़े। पहले वह अपने मित्र के यहां गये। मित्र ने राजा नल के आने की खबर सुनकर पूछा- “मित्र आये तो कैसे आये?”

लोगों ने कहा कि अबकी बार तो बड़े ठाट-बाट से, हाथी-घोड़े से, डंका-निशान से, पालकी-पीनस से और फौज भी साथ लेकर आये हैं। मित्र ने कहा- “अच्छी बात है, आने दो। मेरे तो जैसे तब थे वैसे अब हैं। आखिर मित्र तो हैं !”

राजा-रानी दोनों मित्र के महल में गये। उन्होंने सादर उनका स्वागत करके उसी स्थान में फिर से उनको डेरा दिया, जहां वे पहले टिके थे। आधी रात के समय राजा सो रहे थे, रानी पैर दबा रही थीं। तब उसने देखा कि मोर का चित्र जो हार लील गया था, उसे उगल रहा है और खांड़ा खाट की पाटी से बाहर निकल रहा है।

रानी ने राजा को जगाकर दिखाया। राजा ने अपने मित्र को बुलाकर वह चरित्र दिखाया। तब मित्र बोला कि मैंने ना तब चोरी की थी, ना अब करता हूं। यह सब कुछ कुदशा का कारण था। आप निश्चय रखिये, मेरे मन में कोई मैल नहीं है।

मित्र के यहां से चलकर राजा मुंहबोली बहन के घर गये। उसने जब सुना कि राजा भैया आये, तब उसने पूछा- “कैसे आये?” लोगों ने कहा- “जैसे राजाओं को आना चाहिए, वैसे आये, और कैसे आये?” उसने कहा- “उनको मेरे महल में आने दो।”

जब राजा नल का हाथी बहन के महल की ओर बढ़ा, तब रानी बोली – “आप बहन के घर जाइये, मैं तो उसी कुम्हार के घर जाकर ठहरूंगी, जिसके यहां पहले टिकी थी।”

राजा ने कहा- “जिसके कारण इतने दुःख उठाये, तुम उसी से फिर झगड़ा मोल लेती हो यह तो अच्छा नहीं करतीं।” परन्तु रानी ना मानी। वह कुम्हार के यहां ठहरी। राजा बहन के घर चले गये। शाम को ननद भावज के लिए थाल लगाकर चली। उसने भावज के सामने जाकर थाल रख दिया।

तब भावज सोने-चांदी के गहने उतार उतार कर रखने लगी और कहने लगी- “खाओ रे! मेरे सोने-रूपे के गहनो! खाओ। हम नंगे भूखे क्या खायेंगे।” यह देखकर ननद बोली कि यह उपालम्भ और बोली-ठटोली किस पर कसती हो? मुझसे तो जो कुछ हो सका, सो तब लाई थी, वही अब भी लाई हूं। विश्वास ना हो तो चक्का के नीचे अब भी देख लो। सचमुच चक्का उठाकर देखा तो उसके नीचे मणि-माणिकों का ढेर लगा था। रानी देखकर सन्न रह गई। वह बोली-“ननद ! तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह सब मेरी कुदशा का कारण था।”

रानी ने ननद का लाया हुआ सब सामान वापस कर दिया। कुछ अपनी तरफ से भी दिया, परन्तु पूजा का न्योता ना दिया। वहां से चलकर राजा सुरा गाय के पास आये, तो उसने सब सेना समेत राजा को यथेच्छ दूध पिलाया। वहां से आगे चले, तब तरबूजों वाला कहार मिला। उसने सबको अच्छे तरबूजे खिलायें।

आगे चलकर राजा नदी के तट पर पहुंचे तो वहां पड़ाव पड़ गया। राजा का आला चेताया गया जब भोजन तैयार हो गया, तब राजा भोजन करने बैठे। उस समय नदी में उछलकर गिरी हुई मुनी-सुनाई मछलियां आप से आप थाली में आकर गिर पड़ीं। वे रोटियां, जो ईट हो गई थीं, फिर से रोटियां हो गई।

Dasha Mata Vrat
दशा माता

तब राजा ने पूछा कि यह सब क्या कौतुक है? कुछ समझ में नहीं आता। रानी बोली कि ये वही मछलियां और रोटियां हैं, जो उस दिन अपने काम में ना आई थीं। मैं यदि आपसे कहती कि मछलियां जल में उछल गई और रोटियां ईंट हो गई तो आप ना मानते। इसी कारण मुझको बहाना करना पड़ा था।

वहां से आगे चले तो किसान लोग बोझ बांधे हुए होरहा लिये रास्ते में खड़े थे। राजा की सब फौज ने उन्हें भूनकर बालें चबाई। दो-एक राजा ने भी खाईं। और भी आगे चले तो वहां बेर के पेड़ों से बेर टपकने लगे! राजा की सब सेना ने खूब बेर खाये ।

जब राजा नल की फौज अपनी राजधानी के पास पहुंची तब वहां के लोग घबरा उठे। उन्होंने कहा कि अपने राजा पर तो विपत्ति पड़ी है, वह बाहर भटकते फिरते हैं। यह कोई शत्रु चढ़ आया है। इसको नजराना देकर मिलाना चाहिए।

अस्तु, वे लोग हीरा-मोती थालों में भर-भरकर राजा से मिलने गांव से बाहर आये। अपने राजा को पहचान कर उनको बेहद खुशी। वे बड़ी श्रद्धा-भक्तिपूर्वक महाराज के आगे होकर उन्हें महलों में लिवा ले चले।

राजा-रानी ने महलों में प्रवेश करके तुरन्त ही दशारानी की पूजा का प्रबन्ध किया और उस नगर की सब सौभाग्यवती स्त्रियों को आमंत्रित किया। भगवती के भोग के लिए सब तरह के पकवान बनाये गये। आटे की बटी हुई दस बत्तियां, दस गुड़ या शक्कर की गुझियां, और दस-दस अठवाइयां सुहागिनों के आंचल में डाली गईं। सुहागिनों का शृंगारादि करके दशारानी की पूजा आरम्भ हुई।

कलश स्थापित होकर जोर माणिक (दिया) जलाया गया तो बत्ती ही ना जली। तब पण्डितों ने विचार करके कहा कि यदि कोई न्योता पानेवाला न्योतने को रह गया हो, तो स्मरण किया जाय। उसके आ जाने पर दीपक जल जायगा।

रानी ने कहा कि मैंने तो और सभी को न्योता दिलवा दिया है, सिर्फ मुंहबोली बहन को न्योता नहीं दिया है। पण्डितों ने कहा कि उसे शीघ्र बुलाइये। राजा ने अपना द्रुतगामी रथ भेजकर मुंहबोली बहन को बुला लिया। उसने कलश का माणिक प्रज्वलित किया। बड़ी धूम-धाम से पूजा हुई। अन्त में सुहागिनों को भोजन कराकर विदा किया गया। उसी समय राजा ने राज में हुक्म जारी किया कि अब से मेरी प्रजा के लोग दशारानी का व्रत किया करें। भगवती दशारानी ने जैसे राजा नल के दिन फेरे, ऐसे ही वह सब के दिन फेरें ।

दशा माता की दूसरी कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-2)

एक राजा था, जिसकी दो रानियां थी। जेठी रानी की कोई सन्तान नहीं थी, लेकिन छोटी रानी का एक पुत्र था। राजा, छोटी रानी और उसके पुत्र को बहुत प्यार करता था। यह देखकर बड़ी रानी को द्वेष और ईर्ष्या होती थी। वह सौतियाडाह के कारण राजकुमार के प्राणों की प्यासी हो गई थी।

एक दिन राजकुमार खेलता हुआ अपनी सौतेली मां के चौक में चला गया। सौतेली मां ने उसके गले में एक काला सांप डाल दिया। राजकुमार की मां दशारानी का व्रत करती थी। वह लड़का दशारानी का दिया हुआ था। दशारानी की कृपा से लड़के के गले में पड़ा हुआ सांप अपने आप ही सरककर भाग गया।

दूसरे दिन राजकुमार को सौतेली मां ने विष के लड्डू खाने को दिये। वह लड्डू लेकर ज्योंही खाने लगा, त्योंही दशारानी ने किसी दासी के वेश में प्रकट होकर लड्डू छीन लिये। विष देने पर भी लड़का नहीं मरा, तब रानी को बड़ी चिन्ता हुई कि किसी-न-किसी तरह इसको मारना चाहिए।

तीसरे दिन जब राजकुमार फिर से उसके आंगन में खेलने गया। रानी ने उसे पकड़कर गहरे कुएं में डाल दिया। यह कुआं उसके आंगन में था, इस कारण किसी को कुछ पता भी ना चला कि राजकुमार कहां गया, क्या हुआ ?

उत्तम जलाशय, शुद्ध स्वच्छ मकान और ऐसी दिव्य वस्तुओं में सदैव दशारानी का वास रहता है। सौतेली मां ने राजकुमार को कुएं में डाला और दशारानी ने उसे बीच ही में रोक लिया। जब दोपहर का समय हुआ और कुंवर कहीं नहीं दिखाई दिया, तब राजा-रानी को बड़ी चिन्ता हुई। जहां-तहां लोग उसकी तलाश करने लगे। इधर दशारानी को इस बात की चिन्ता हुई कि राजकुमार के माता-पिता उसके लिए व्याकुल हो रहे हैं। उसको उनके पास पहुंचाना चाहिए, परन्तु पहुंचायें तो किस तरह?

राजकुमार को तलाश करने वाले लोग हताश हो गए। राजा-रानी दोनों दुःखी होकर पुत्र-शोक में बैठकर रोने लगे। तब दशारानी एक भिखारिणी के वेश में कुंवर को गले से लगाये हुए राज-द्वार पर जा पहुंची राजकुमार को एक वस्त्र में छिपाये हुए भिखारिणी ने भिक्षा के लिए पूछा। सिपाहियों ने उसे दुत्कार कर कहा कि कहां तो राजाकुमार खो गया है, और सभी लोग दुःख और चिन्ता में व्याकुल हो रहे हैं और ऐसे में तुझे भिक्षा की पड़ी है ? चल हट जा यहां से !

तब दशारानी बोली- “भाइयो! पुण्य का प्रभाव बड़ा होता है यदि मुझे भिक्षा मिल जाय तो सम्भव है कि खोया हुआ राजकुमार मिल जाए।” यह कहकर वह दहलीज के भीतर पैर रखने लगी। तब सिपाहियों ने उसे आगे बढ़ने से रोका। उसी समय दशारानी ने एक वस्त्र में से बालक का पैर उधार दिया। सिपाहियों ने समझा कि अभी कुंवर इसके हाथ में है, इसे जाने दो, और कुंवर को भीतर छोड़ आने दो उधर से बाहर जाने लगेगी तब पकड़ लेंगे।

दशारानी कुंवर को लिये हुए भीतर चली गई। उसने राजकुमार को चौक में छोड़ दिया और वहां से वापस होकर चल दी, परन्तु रानी ने उसे देख लिया था। उसने डांटकर कहा कि खड़ी रह कौन है? तूने तीन दिन से मेरे लड़के को छिपाकर रखा था। तूने ऐसा क्यों किया ? ठहर जा, इसका जवाब तो लेती जा।

दशारानी उसी क्षण ठहर गई। उसने कहा कि रानी। मैं तुम्हारे पुत्र को चुराने-छिपानेवाली नहीं हूं। मैं ही तेरी आराध्य देवी दशारानी हूं। तुझे सचेत करने आई हूं कि तेरी सौतन तुझसे ईर्ष्या-द्वेष रखती है। वही तेरे पुत्र का घात करने की चिन्ता में रहती है। अपने पुत्र को कभी उसके पास ना जाने दे।

Dasha Mata Vrat
दशा माता

एक बार उसने कुंवर के गले में सर्प डाल दिया था, उसे मैंने भगाया। दूसरी बार उसने विष के लड्डू उसे खाने को दिये थे, उसको मैंने इसके हाथ से छीना। अबकी उसने इसे कुएं में डाल दिया था, सो इस बार भी मैंने उसकी रक्षा की। इस समय भिखारिन बनकर तुमको चेताने आई हूं ।

तब रानी भगवती के पैरों पर गिर पड़ी। उसने विनीत भाव से प्रार्थना की कि जैसे कृपा करके आपने साक्षात् दर्शन दिये हैं वैसे ही अब इसी महल में सदैव रहिये। मुझसे जो सेवा-पूजा बनेगी, सो करूंगी।

तब दशारानी ने उत्तर दिया कि मैं किसी घर में नहीं रहती। जो श्रद्धापूर्वक मेरा ध्यान-स्मरण करता है, उसी के हृदय में रहती हूं। मैंने तुझे साक्षात् दर्शन दिया इसके उपलक्ष्य में तुम सुहागिनों को न्योत कर उनको यथाविधि आदर-सत्कार से भोजन कराओ और अपने नगर में तथा राज्य में ढिंढोरा पिटवा दो कि मेरा गंडा लिया करें और व्रत किया करें।

यह कहकर दशारानी अन्तर्द्धान हो गईं। रानी ने शहरभर की सौभाग्यवती स्त्रियों को निमंत्रण देकर बुलाया। उबटन से लेकर शिरोभूषण श्रृंगार तक उनकी यथाविधि सुश्रूषा करके गहने आदि देकर आंचल भरे और भोजन कराकर विदा किया। शहर और राज्य में भी ढिंढोरा पिटवा दिया कि अब सब लोग दशारानी के गंडे लिया करें।

दशा माता की तीसरी कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-3)

एक साहूकार था। उसका बड़ा परिवार था। पांच बेटे, उनकी पांच बहुएं और एक लड़की थी। लड़की का विवाह हो चुका था, किन्तु द्विरागमन की विदा नहीं हुई थी। इस कारण लड़की माता-पिता के घर में थी।

एक दिन साहूकारिन दशारानी के गंडे लेने लगी। उसकी बहुओं ने भी गंडे लिये। उसी समय उन्होंने सास से पूछा कि क्या ननदजी का भी गंडा लिया जायगा?

सास ने कहा कि अवश्य। तब ये बोलीं कि उनकी तो विदाई होने वाली है। यदि व्रत के पहले ही विदा हो गई तब ? सास ने कहा कि मैं पूजा का सब सामान साथ में दे दूंगी। वह अपने घर जाकर पूजा कर लेगी।

लड़की ने दशारानी का गंडा तो ले लिया, परन्तु पूजन के पहले ही उसकी ससुराल से उसका पति आ गया। माता ने विधिपूर्वक लड़की की विदाई की और उसकी पालकी में पूजा का सब सामान रख दिया।

जब वह अपने घर पहुंची, तब वहां घर के आंगन में गलीचा बिछ गया। उसी पर वह जाकर बैठ गई। पास-पड़ोस की स्त्रियां नई बहू को देखने जुट आई। सब लोग उसकी सुन्दरता और गहने कपड़े की प्रशंसा करने लगीं।

किसी की नजर सब कुछ छोड़कर उसके गले के गंडे पर जा पड़ी। वह बोली कि बहू की मां बड़ी टुटकाइन है। इतना जेवर होते हुए भी दो ताग सूत के उसके गले में क्यों पहना दिये हैं, सो समझ में नहीं आता। जहां एक ने यह बात कही, वहां सब की नजर गंडे पर पड़ी। सभी स्त्रियों ने गंडे के सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ राय प्रकट की।

सन्ध्या को सास-ननद, देवरानी-जेठानी, घर की सभी स्त्रियां जुटकर बैठीं तो उसी गंडे की चर्चा करने लगीं। किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ। सारांश यह कि सभी ने सूत के गंडे की निन्दा की। सुनते-सुनते नई बहू का जी ऊब गया। तब उसने गंडे को तोड़कर जलती हुई बोरसी में डाल दिया।

dasha mata vrat
दशा माता

गंडे में आग लगते ही उनके घर में आग लग गई। धन-धान्य सब जल गया। सब आदमी अपने-अपने प्राण लेकर भागे। उस जले घर में स्त्री-पुरुष दोनों रह गये, बाकी सब तीन-तेरह हो गये।

घर का सब सामान जल चुका था, ना खाने को अन्न था, ना पहनने को वस्त्र। इस कारण दोनों जन भी गांव छोड़कर चल दिये। आगे स्त्री, पीछे उसका पति। दोनों चलते-चलते उस गांव में पहुंचे, जहां की वह लड़की थी। उसने पति से कहा कि जब तक कोई जीविका नहीं है, तब तक तुम भाड़ झोंककर पेट भरो। मैं भी किसी मजदूरी की चिन्ता करती हूं। पति भाड़ झोंकने लगा और स्त्री एक कुएं की जगत पर जा बैठी।

उस कुएं पर सारे गांव की स्त्रियां पानी भरने आती थीं। उस लड़की की भावजें भी आई और उसे वहां बैठी देखकर बोलीं की बहन! तुम तो किसी भले घर की मालूम होती हो। कैसे बेकार बैठी हो ? कहो किसी के यहां रहोगी तो नहीं?

लड़की बोली कि अवश्य रहूंगी, परन्तु न तो नीच टहल करूंगी, न खराब खाना खाऊंगी। बड़ी भावज बोली कि हमारे घर में तुम्हारे लिए नीच काम हैं ही नहीं, जब से हमारी ननद ससुराल चली गई है, तब से हमारे बच्चे हैरान होते हैं। तुम उन्हीं को खिलाती रहना और हमारे घर से सीधा लेकर अपना भोजन बनाकर खाया करना।

उसके राजी होने पर स्त्रियां अपने घर गईं और सास से बोलीं कि माताजी! कुएं की जगत पर एक अनाथ दुखिनी लड़की बैठी है, वह हमारे यहां रहने और तुम्हारे नाती खिलाने पर राजी है। तुम्हारी आज्ञा हो तो उसे रख लें।

सास ने कहा कि खुशी से रख लो, परन्तु इतना कह देती हूं कि पीछे से कलह ना करना। सब बहुओं ने कहा कि नहीं करेंगी। तब सास ने आज्ञा दे दी। वे दूसरी बार पानी भरने गईं और दुखिनी को अपने घर लिवा लाई। वह अपनी भावजों के लड़के-बच्चे खिलाती और बना खाकर निर्वाह करती हुई रहने लगी।

दैवात फिर से दशारानी के गंडे लेने का अवसर आया। सास ने कहा कि बहुओ ! आओ सब बैठकर गंडे लेवें। बहुओं ने पूछा कि क्या दुखिनी का गंडा भी लिया जायगा? सास ने कहा कि जब वह घर में रहती है, तब उसको क्यों बाहर किया जाय; उसे भी गंडा लेना चाहिए।

तब बहुओं ने कहा कि इसी तरह रोकते-रोकते तुमने ननदजी का गंडा लिया था। आखिर पूजा ना हो पाई और उसकी विदाई हो गई। अब दुखिनी को गंडा लिवाती हो, यदि पूजा होने के पहले यह भी चली गई तब ? सास बोली कि तब क्या हानि है। तुम्हारी ननद ने अपने घर जाकर पूजा की होगी। दुखिनी पूजा होने तक यहीं रहेगी, तो अपनी पूजा में शामिल हो जायगी ना होगा चली जायगी, जहां जायगी वहां पूजा कर लेगी।

सर्वसम्मति से दुखिनी ने भी दशारानी का गंडा लिया। नौ दिन तक कथा-कहानी होती रही। व्रत-पूजन भी यथाविधि हुआ। दसवें दिन साहूकार की पांचों बहुओं और उसकी सास ने सिर से स्नान किया, घर में गोबर से चौका लगाया, चौका पूरा और पूजा की तैयारी करने लगीं, तब दुखिनी बोली कि भाभी! मुझे फटा-पुराना कपड़ा मिल जाय, तो मैं भी स्नान कर आऊं तब बहुओं ने सास से पूछा कि हमारे पास ननदजी की साड़ी रखी हैं, कहो तो इसे दें दें। जब ननदजी आयेंगी तब उनके लिए दूसरी साड़ी आ जायगी। सास ने कहा कि दे दो, मुझे क्या? तुम्हारी ननद झगड़ा ना करे। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।

अपनी पुरानी साड़ी लेकर दुखिनी स्नान करने गई। उसने सिर से स्नान करके साड़ी पहनी और गीले बाल बिखराये हुए घर आई । यहां पूजा होना आरम्भ हो गई थी। वह ज्योंही पूजा के पास आकर बैठी, त्योंही एक भावज ने कहा कि यह दुखिनी तो साक्षात् ननदजी की उनहार है।

इस पर सास ने नाराज होकर कहा कि तुम लोग बड़ी चंचल हो। पूजा के समय भी बक-बक लगा रखी है। चुप रहो, मुझे कथा कह लेने दो। तुम्हारी बातों में कथा का सिलसिला भूल जाती हूं। बहुएं चुप हो गईं।

दुखिनी समेत घर की सब स्त्रियों ने पारण किया। फिर सब इकट्ठी बैठकर एक दूसरी का सिर गूंथने लगीं। एक ने दुखिनी से कहा कि आ, मैं तेरा सिर गूंथ दूं। वह दुखिनी का सिर गूंथते हुए बोली कि जैसी गूंथ इसके सिर में है, वैसी ही गूंथ हमारी ननद के सिर में थी। इस पर साहूकारिन क्रुद्ध होकर बोली कि मेरी लड़की अपने ससुराल में सुख-देख रही होगी। उसकी तुम कहां इस दुखिनी से उनहार देती हो ।

सास ने बहू को दुत्कार तो दिया, परन्तु उसकी बात मन में लग गई। उसने दुखिनी से कहा कि आज रात तुम मेरे पास लेटना। रात को जब बहुएं सो गईं, तब बुढ़िया ने पूछा कि क्यों दुखिनी ! तेरे नैहर में कोई कभी था?

उसने जवाब दिया कि ऐसे ही पांच भाई, पांच भौजाई, तुम जैसी मां और पिता थे। पुनः बुढ़िया ने पूछा कि फिर क्या हुआ ? वह बोली कि मैंने अपने नैहर में दशारानी का गंडा लिया था। उसका पूजन नहीं हो पाया, विदा ससुराल को हो गई। वहां स्त्रियों ने मेरे गले में गंडा देखकर हंसी उड़ानी शुरू की। तब मैंने उस गंडे को आग में डाल दिया। उसी गंडे के साथ-साथ सारा घर जलकर भस्म हो गया। सब लोग तीन-तेरह हो गये। हम दोनों जने भागकर यहां चले आये। माता ने पूछा कि तेरा पति कहां है? दुखिनी ने जवाब दिया कि वह तो भड़भूजों के यहां भाड़ झोकते हैं।

साहूकारिन अपनी लड़की को पहचानकर उसके गले से लग कर रोने लगी। उसके रोने का शब्द सुनकर पांचों लड़के उसके पास आये। तब बुढ़िया ने कहा कि यह दुखिनी और कोई नहीं, तुम्हारी सगी बहन है। तुम्हारा बहनोई भूजे के यहां भाड़ झोंकता है। दशारानी के कोप से इसकी ऐसी गति हुई है।

सुबह होते ही पांचों भाई भूंजे के घर गये और उसे जैसे-तैसे पकड़कर घर लाये। उन्होंने उनका क्षौर कराकर स्नान कराया, और बढ़िया वस्त्र पहनाये। तब तो वह सुन्दर साहूकार दिखाई देने लगा। कुछ दिनों ससुराल में रहकर जब वह अपने घर गया तब उसने देखा कि घर के सभी लोग पहले की तरह सुख से हैं। इसके बाद वह ससुराल आया। तब उसके सास-ससुर ने दुखिनी को उसके साथ विदा कर दिया।

दुखिनी अपनी दशा पर विचार करती हुई जब ससुराल जा रही थी तब रास्ते में उसे एक नदी मिली। उस नदी में स्नान करके अप्सराएं दशारानी का गंडा ले रही थीं। उनका एक गंडा अधिक था। उनमें से एक बोली कि यदि इस डोली में कोई उच्च वर्ण की स्त्री हो, तो उसी को गंडा दे देना चाहिए। उन्होंने डोली के पास जाकर पता लगाया और दुखिनी को गंडा दे दिया।

जब दुखिनी घर पहुंची तब उसकी सास सूप सजाये, ननद कलश लिये और देवरानी-जेठानी अन्य मांगलिक वस्तुएं लिये उसका स्वागत करने लगीं। नेग-दस्तूर हो चुकने के बाद दुखिनी ने आसन पर बैठते ही कहा कि तुम लोगों ने तब की बार दशारानी के गंडे की निन्दा की थी, इसलिए सब का विछोह हुआ और घर का धन-धान्य स्वाहा हो गया। राम-राम करके ठिकाने लगे हैं। अब की कोई मेरे गंडे की चर्चा ना करना। जब मेरा व्रत हो, तब श्रद्धापूर्वक पूजा करना।

सबने खुशी से उसकी बात मान ली। नौ दिन कथा-कहानियां हुईं। दसवें दिन विधि से गंडे की पूजा हुई। सात सुहागिनें न्योती गईं। महावर आदि से उनका श्रृंगार कराकर आंचल भरे गये। इस प्रकार खुशी से दशारानी का पूजन हुआ। दशारानी ने जैसे दुखिनी की दशा फेरी, वैसे ही वह सब पर कृपा करें।

दशा माता की चौथी कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-4)

एक राजा था। उसकी रानी बड़ी ही सुकुमारी थी। वह फूलों की सेज में सोया करती थी। एक दिन फूलों की सेज में एक कच्ची कली बिछ गई। उस रात रानी को नींद नहीं आई। राजा ने पूछा- “प्रिये! आज तुमको नींद क्यों नहीं आती? क्या कोई पीड़ा है।”

तब रानी बोली कि आज सेज पर एक कच्ची कली रह गई है, वही मेरे शरीर में गड़ती है। इसी से नींद नहीं आती। उसी समय दीपक हंसा। यह देखकर राजा ने हाथ जोड़कर ज्योति स्वरूप से प्रार्थना की- “स्वामी ! आप क्यों हँसे? कृपाकर इसका भेद बताइये।”

ज्योति स्वरूप ने पुनः हंसकर उत्तर दिया कि अभी तो रानी कच्ची कली के कारण उसकती-पुसकती है, कल सुबह होते ही जब सिर पर बोझा उठाएंगी, तब क्या होगा? राजा ने पूछा कि मेरे देखते, मेरे जीते-जी ऐसा होना सम्भव है? तब दीपक ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया- “हां, सम्भव है, तुम्हारे जीते-जी सम्भव है।”

दीपक की ऐसी भविष्यवाणी सुनकर राजा ने अपने मन में कहा कि देववाणी असत्य नहीं हो सकती। रानी को जरूर बोझा ढोना पड़ेगा; परन्तु यह हो सकता है कि यदि मैं इसको जीते जी समुद्र में बहा दूं, तो सम्भव है कि यह बोझा ढोने से बच जाय; क्योंकि जब समुद्र में वह डूब जायगी, तब बोझा कौन ढोवेगा।

राजा ने उसी समय रानी से कहा- “चलो, हम तुमको नेहर भेज आयें। कुछ दिन तुम वहीं रहना।” रानी ने कहा कि मेरे नेहर में तो कोई भी नहीं है, वहां किसके यहां रहूंगी? राजा ने जवाब दिया कि तुम्हें मालूम नहीं है, तुम्हारे गोत्रज – सम्बन्धी बहुत अच्छी दशा में हैं। मैं उन्हीं के पास तुमको भेज देता हूं।

रानी नेहर जाने को तैयार हो गई। उसने राजा की आज्ञानुसार बहूमूल्य आभूषणों से अपने को संवारकर तैयार किया। तब राजा ने उसे सन्दूक में बिठाकर नदी में बहवा दिया।

वह नदी समुद्र में ऐसी जगह जाकर मिलती थी, जहां उस राजा के बहनोई का राज्य था। समुद्र से मोती की सीपें निकालेने का राजा का ठेका था। रानी का सन्दूक बहता हुआ जब उस जगह पहुंचा, तब राजा ने मल्लाहों को हुक्म देकर सन्दूक को पानी से बाहर निकलवाया और उसे महल में भेजकर हुक्म देते हुए कहा इस सन्दूक को अन्दर मेरे सोने के कमरे में रखा जाय। जब तक मैं न आऊं, इसे कोई छुए भी नहीं।

dasha mata vrat
दशा माता

राजा के शयनागार में सन्दूक पहुंचते ही रानी ने सुना कि राजा ने उसे समुद्र में पाया है, तब वह फौरन उसे देखने के लिए चली गई। उस समय पहरेदार वहां से हट गया था। रानी ने कौतुकवश सन्दूक खोला। उसने देखा कि उसके भीतर एक सर्वांग सुन्दरी सोलह शृंगार, बारहों आभूषण किये बैठी है।

रानी ने अपने सोचा कि अगर राजा इसको इस दशा में देखेगा, तो इसी का होकर रहेगा, मुझे त्याग देगा। इसलिए इस स्त्री का हुलिया बिगाड़कर सन्दूक में बन्द कर देना चाहिए। तदनुसार उसने रानी के जेवर कपड़े सब उतरवाकर उसे मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़े पहना दिये और सन्दूक बन्द करवा दिया।

राजा जब बाहर से महल में आया, तब उसने रानी को अपने सोने के कमरे में बुलाया और पूछा कि क्यों रानी तुमने देखा, इसमें क्या है? रानी ने जवाब दिया कि मैंने कुछ नहीं देखा-सुना कि क्या है, क्या नहीं है। राजा ने रानी के सामने सन्दूक खुलवाया, तो उसमें फटे-पुराने कपड़े पहने एक भिखारिणी दिखी।

रानी ने कहा कि यह तो कोई निर्वासित भिखारिणी नीच जाति की दिखाई देती है। इसको कारखाने में भिजवा दिया जाय। वहां लकड़ी ढोती रहेगी और खाना पाती रहेगी। राजा ने रानी के कहे अनुसार उसे कारखाने में भेज दिया।

एक दिन रानी की सहेलियां नदी में स्नान करके दशारानी के गंडे ले रही थीं। एक गंडा उनका अधिक था। वे इसी विचार में थीं कि यह किसको दिया जाय? दैवयोग से उसी समय लकड़ीवाली रानी वहां जा पहुंची। उन्होंने उससे कहा कि बहन! यदि तुम कोई नीच वर्ण ना हो, तो हमारा गंडा ले लो।

रानी ने कहा कि मुझे गंडा लेने से इन्कार नहीं है, परन्तु मुझे तो खाने भर को मिलता नहीं। इनकी पूजा कैसे करूंगी। वे बोलीं कि तुम इसकी चिन्ता मत करो, हम रोज इसी जगह स्नान करने आया करेंगी। नौ दिन तक कथा कहा करेंगी, तुम भी रोज कथा सुन जाया करो। दसवें दिन पूजा होगी, तब तक दशारानी चाहेंगी, तो अवश्य तुम्हारी दशा बदल जायगी। रानी ने श्रद्धापूर्वक दशारानी का ध्यान करके गंडा ले लिया।

उसी दिन रानी के पति को यह चिन्ता हुई कि रानी को सन्दूक में रखकर बहा तो दिया था, परन्तु उसका कोई समाचार नहीं मिला कि क्या हुआ। किसी तरह उसकी टोह लगानी चाहिए। राजा एक नौका पर सवार होकर नदी द्वारा यात्रा करता हुआ अपने बहनोई के यहां पहुंचा।

सन्ध्या को ब्यालू करके जब वह लेटने लगा, तब बहन से बोला कि मेरे हाथ-पैरों में बहुत दर्द है । किसी दबाने वाले को बुला दो। तब उस रानी ने लकड़ी ढोनेवाली भिखारिणी को बुलाकर हुक्म दिया कि आज की रात तू मेरे भाई के पैर दबा दे। वह बड़े संकोच में पड़ गई। अपने जी में अनेक संकल्प-विकल्प करती थी कि पर-पुरुष का शरीर छुऊं तो कैसे छुऊं। रानी के सामने अपनी बात पर दबाव दे रही थी। इसीलिए लाचार होकर उसे स्वीकार करना पड़ा।

राजा के पैर दबाते-दबाते रानी को उसके पांव का पद्म दिखाई दिए। रानी चुपचाप रोने लगी और उसके आंसू राजा के पैरों पर टपक पड़े। तब उसने पूछा कि “क्यों री दासी, तू क्यों रोती है? तू अपना भेद मुझे बता मेरे कारण तुझे किसी प्रकार की हानि ना पहुंचेगी।” तब वह बोली कि जैसा पद्म आपके पैर में है, वैसा ही मेरे पति के पैर में था। पहले दिनों की याद आने से मुझे रोना आ गया है।

तब राजा बोला कि मैं समझ गया। अब तुम पैर मत दबाओ, आराम से सोओ। जो तुम्हारे भाग्य में लिखा था, वह तुमको भोगना ही पड़ा। मैंने उसके टालने के लिए जो उपाय रचा था, उसका उल्टा नतीजा हुआ। तुमको मेरे जीते-जी लकड़ी ढोनी ही पड़ी। राजा ने अपनी धोती उतारकर रानी को दे दी। रानी एक कोने में सो गई।

सुबह हुई। बहुत दिन चढ़ आया। परन्तु अतिथि राजा सोकर नहीं उठा, ना पैर दबानेवाली दासी बाहर निकली। तब उसकी बहन को चिन्ता हुई। थोड़ी देर बाद दासी बाहर निकल आई और कारखाने में काम करने चली गई।

रानी ने अपने भाई के पास जाकर उसे जगाया। तब वह बोला कि मेरे माथे में दर्द है, मैं अभी नहीं उठूंगा। इस समय मेरा जी बहुत व्याकुल हो रहा है, मुझे अधिक मत सताओ।

रानी ने पूछा कि आखिर बात क्या है? कुछ कहो भी? राजा ने कहा कि बड़ी लज्जा की बात है। मैंने तुम्हारी भावज को जान-बूझकर तुम्हारे पास इसलिए भेजा था कि यहां इसे आराम से रखा जायगा परन्तु तुम उससे मजदूरों के साथ लकड़ी ढुलवाती हो।

क्या मैंने इसीलिए उसे तुम्हारे पास भेजा था ? तब बहन बहुत लाचार होकर बोली कि नदी में बहती – बहती ना जाने कौन कहां की चली आई है। अब जाना सो माना। यह कहकर उसने दासियों को भेजा कि उस लकड़ीवाली को चुपचाप मेरे पास बुला लाओ। जब दासी रानी आई तो उसकी भावज ने आदरपूर्वक उसके पैर पकड़े और विनीत भाव से माफी मांगी।

कुछ दिनों बहन के पास रहने के बाद राजा अपनी रानी को साथ लेकर अपनी राजधानी लौट आया। रानी ने महल में पहुंचकर सुहागिने न्योती, धूमधाम से दशारानी के गंडे की पूजा की और गांव भर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि आज से अमीर-गरीब सब दशारानी के गंडे लेकर श्रद्धापूर्वक पूजा किया करें, जिस किसी के पास पूजन पारण की सामग्री की कमी हो, वह राजा के कोठार से ले जाया करें।

…तो जिस प्रकार दशारानी ने सुकुमारी रानी के दिन फेरे, वैसे ही वह अपने सब भक्तों के दिन फेरें। श्रोता वक्ता सभी का कल्याण हो।

दशा माता की पांचवीं कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-5)

कोई सास-बहू थीं। सास ने एक दिन सवेरे बहू से कहा कि जाओ, आग लाकर भोजन बनाओ, बड़ी भूख लगी है। बहू हाथ में कंडी लेकर आग लेने गांव में गई। उस दिन गांव भर में घर-घर दशारानी की पूजा थी, इस कारण किसी ने उसको आग नहीं दी। वह लौट आई।

सन्ध्या समय वह पड़ोसनों के पास गई और उनसे बोली कि मेरी सास तो गंडा लेती नहीं है, परन्तु अबकी बार जब गंडे पड़ें, तब मुझको बताना और पूजन की विधि भी बता देना तो मैं भी गंडा लूंगी।

इसके बाद जब गंडे पड़े तब बहू ने सास की चोरी से दशारानी का गंडा लिया। नौ दिन तक उसने किसी न किसी बहाने पड़ोसनों के पास जा-जाकर कथा कहानियां सुनीं। दसवें दिन उसे चिन्ता हुई कि अब पूजा कैसे करूंगी। तब वह मन ही मन दशारानी का ध्यान करके मनाने लगी कि यदि बुढ़िया आज कहीं बाहर चली जाय, तो मैं शान्तिपूर्वक पूजा कर लूं।

दशारानी की कृपा से उसी दिन बुढ़िया को खेतों पर जाने की सूझी। उसने बहू से कहा कि तुम भोजन बनाकर तैयार करना, तब तक मैं खेत-खलिहान तक होकर वापस आती हूं। यदि मुझे अधिक देर हो, तो मुझे खेत पर ही खाना दे जाना। बहू तो यही चाहती थी। उसने सास की आज्ञा को शिरोधार्य करके कहा कि आप जाइये और घर के काम-काज से निश्चिन्त रहिये।

ज्योंही बुढ़िया ने पीठ फेरी त्योंही बहू ने पूजा की तदबीर लगाई। उसने सिर से स्नान करके विधिवत् दशारानी की पूजा की। तदनन्तर वह पूजा की सामग्री मिट्टी के गोले में रखकर उसे भेंटकर सिराने के लिए ले ही जानेवाली थी कि बुढ़िया आ गई।

dasha mata vrat
दशा माता

उस वक्त बहू को जब और कुछ उपाय न सूझा तब उसने जल्दी से उस गोले को छाछ की मटकी में छिपा दिया। उसने सोचा कि जब बुढ़िया फिर कहीं बाहर जायगी, तब गोला मट्ठे में से निकालकर सिरा आऊंगी।

बुढ़िया ने आते ही बहू की खबर ली। उसने पूछा कि तू मेरे खाने को क्यों नहीं लाई ? अब तक क्या करती रही ? उसने जवाब दिया कि आज मैंने सिर से नहाया है, इसी कारण रसोई करने में देर हो गई है। मैं थाल परोसती हूं, भोजन कीजिये।

बुढ़िया का गुस्सा कुछ शान्त हुआ। वह पैर धोकर चौके में बैठी ही थी कि उसका लड़का भी आ गया। वह भी माता के साथ भोजन करने बैठ गया। बुढ़िया भोजन करके उठना ही चाहती थी कि लड़का बोला- “मुझे तो छाछ चाहिए।” बुढ़िया ने बहू से कहा- “उठ, छाछ दे दे।” उसने कहा- “मैं तो रसोई के भीतर हूं, आप क्यों न दे दें।”

बुढ़िया भोजन करके उठी । हाथ धोकर मट्ठा लेने गई, परन्तु ज्योंही उसने छाछ की मटकी उठाई कि उसमें कुछ खड़खड़ाता हुआ सुनाई दिया। उसने हाथ डालकर देखा तो एक बड़ा सोने का गोला था।

सास ने आश्चर्य में होकर बहू से पूछा – “अरी, इसमें यह क्या है? इसे तू कहां से लाई है? यहां क्यों छिपा रखा है? मैं समझ गई, इसी से तू छाछ देने नहीं आई थी। इसका भेद बता, नहीं तो अभी तेरी खबर लेती हूं।”

बहू बोली- “मैं क्या जानूं, मेरी दशारानी जाने। मैंने तुम्हारी चोरी से दशारानी का गंडा लिया था और तुम्हारी चोरी से पूजा की थी। तुम आ गई, इसलिए मैं गंडा सिराने ना जा सकी। तब मैंने उसे छाछ की मटकी में छिपा रखा था। दशारानी ने उसे सोने का कर दिया, तो इसके लिए मैं क्या करूं।”

बुढ़िया ने बहू को गले से लगा लिया और कहा कि अब मैं भी तेरे साथ गंडा लिया करूंगी और विधिवत् व्रत और पूजन किया करूंगी। हे दशारानी ! जैसे तुमने मुझको दिया, वैसे ही अपने सब भक्तों को दिया करो।

दशा माता की छठी कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-6)

एक घर में कोई देवरानी-जेठानी थीं। उनके कोई सन्तान नहीं होती थी। वे मेहनत-मजदूरी करके पेट पालती थीं, नेम-धर्म, व्रत-पूजन कुछ भी नहीं करती थीं। एक दिन दोनों सवेरे-सवेरे गांव में आग लेने गई, परन्तु किसी ने उनको आग नहीं दी।

उस दिन गांव भर में दशारानी का पूजन था। दोनों खाली हाथ घर आकर एक दूसरे से कहने लगीं कि आज तो गांव भर में दशारानी का पूजन है, कोई आग देती ही नहीं। क्या किया जाय? आखिर जेठानी बोली कि कुछ हानि नहीं, आज अपने लोगों का भी व्रत सही। शाम को जब आग मिलेगी, तब रसोई बना खा लेंगी।

सन्ध्या के समय जेठानी अपनी एक पड़ोसन के घर आग लेने गई। पड़ोसन ने उसे स्वागतपूर्वक बिठाया। जेठानी ने पूछा कि दशारानी का पूजन करने से क्या होता है। उसने जवाब दिया कि जिस बात की इच्छा करके गंडे लिये जायं, वह इच्छा पूर्ण होती है। तब जेठानी बोली कि बहन! अब की बार जब गंडे पड़ें तब मैं भी गंडा लूंगी और पूजन करूंगी।

जेठानी आग लेकर पड़ोसन के घर से बाहर निकली ही थी कि गाएं चरकर आती हुई दिखाई दीं। ग्वाला पीछे-पीछे आ रहा था। उसके कंधे पर एक बछवा था और एक गाय उसको चाटती हुई उसके पीछे-पीछे आ रही थी।

पड़ोसन ने पूछा- “भैया ! तुम्हारी गाय पहली ही ब्यान है या दोहला तेहला ?” उसने कहा कि पहली ही ब्यान है। पुनः स्त्री ने पूछा कि बछवा ब्याई है या बछिया? ग्वाला ने जवाब दिया कि बछवा है। तब उसने जेठानी से कहा कि लो, अब घर जाकर दशारानी का गंडा ले लो। नौ दिन तक कथा-कहानियां सुनना, दसवें दिन सिर से स्नान करके पूजन करना। दशारानी चाहेंगी तो दस दिन के भीतर ही तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो जायगी।

उसने अपने घर जाकर देवरानी को यह बात बताई। निदान दोनों ने दशारानी के गंडे लिये और दशारानी का ध्यान स्मरण करके यह मनौती मनाई कि यदि हमारे सन्तान पैदा होगी, तो हम सुहागिनें न्योतकर दुरैयां करायेंगी।

दशारानी के गंडे की पूजा होने के पहले ही देवरानी-जेठानी दोनों गर्भवती हुईं। नौ महीने नौ दिन के बाद दोनों के गर्भ से दो सुन्दर बालक जन्मे। बालकों के जन्म संस्कार के बाद ही देवरानी ने कहा कि लड़के होने पर जो सुहागिनें न्योतने की मनौती की थी, उनको न्योत देना चाहिए।

जेठानी ने कहा कि अभी ऐसी जल्दी क्या पड़ी है, जब लड़कों की पसनी (अन्न-प्राशन संस्कार) होगी, तब न्योत देंगी। जब लड़कों की पसनी हुई, तब भी देवरानी ने दुरैया की याद दिलायी, परन्तु जेठानी ने फिर भी बात टाल दी और कहा कि जब लड़कों का मुण्डन होगा, तब सुहागिनें न्योती जायंगी।

होते-होते कुछ दिनो बाद लड़कों का मुण्डन हुआ, तब भी देवरानी ने जेठानी से कहा, परन्तु फिर भी जेठानी ने कहा कि जब लड़के बड़े होंगे, उनकी सगाई होगी, उसी दिन सुहागिनें न्योती जायंगी।

लड़के बड़े हो गये। उनका सगाई-सम्बन्ध भी पक्का गया। फिर भी जेठानी ने सुहागिनें नहीं न्योतीं । उसने कहा कि जिस दिन लड़कों की भांवरें पड़ेंगी, उसी दिन सुहागिनें न्योतकर उत्सव के साथ पूजा की जायगी।

तब देवरानी बोली कि बहन! तुम चाहे जब करना, पर मैं तो मण्डपाच्छादन के दिन ही सुहागिनें न्योतूंगी। देवरानी ने जैसा कहा था, वैसा ही किया। उसने मण्डवा के दिन सुहागिनें न्योत दीं, परन्तु जेठानी ने कुछ भी परवाह ना की। मण्डपाच्छादन के बाद मातृका पूजन करके और बारात सजाकर दोनों दूल्हे ब्याहने चले।

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दशा माता

जिस लड़के की माता ने मण्डवा के दिन सुहागिनें न्योती थीं, उसका विवाह बड़ी धूमधाम से सकुशल पूर्ण हो गया, परन्तु जिसकी मातात ने सुहागिनें नहीं न्योंती थीं उसको ठीक भांवरों के समय दशारानी बीच मण्डप से हरकर ले गई। दूल्हा को सहसा गायब होते देख वर-कन्या दोनों पक्षों में हाहाकार मच गया।

उसकी बारात खाली हाथ घर वापस आई। परन्तु लड़की की माता बड़े संकट में पड़ गई कि अब यह अधब्याही लड़की किसके सर मढ़ी जायगी। पास-पड़ोस की चतुर स्त्रियों ने लड़की की माता को समझाया और ब्याह का जो सीधा-सामान बचा हुआ था, उसे उसी लड़की के हवाले कर दिया। लड़की मंगते- भिखारी लोगों को सदावत देने लगी।

एक दिन एक साधु तीर्थयात्रा करता हुआ उसी गांव की ओर आया। गांव से बहुत दूर घने जंगल में एक बड़ा पीपल का पेड़ था। लोग उस पेड़ को पारस पीपल कहते थे। उसी पेड़ में दशारानी का निवास था।

साधु चलता चलता शाम को उसी पेड़ के नीचे ठहर गया। वहां अंधेरा हो गया। दिया पर बत्ती पड़ी की झाडूदार ने आकर उसी पेड़ के पास मैदान में झाडू लगाई, सक्का (भिश्ती) ने आकर जमीन छिड़की और माली ने आकर फूल बिखेर दिये। तब अनेक देवता अनेक प्रकार की पोशाकें पहने हुए वहां आकर यथा-स्थान बैठने लगे।

सबसे पीछे स्वर्ग से राजा इन्द्र का सिंहासन उतरा। उसी के साथ अनेक अप्सराएं साज-सामान समेत वहां आईं और इन्द्र के सिंहासन के सामने नाचने लगीं।

उसी समय दशारानी अधब्याहे लड़के को गोद में लिए हुए पीपल के पेड़ से उतरीं। इन्द्र के साथ-साथ स्वर्ग से एक सुरा गऊ भी आई थी। उसने दो कटोरा दूध दिया। लड़के ने अधब्याही के भाग का एक कटोरा अलग रख दिया और एक कटोरा दूध पी लिया। जब तक नाच-तमाशा होता रहा, दशारानी लड़के को गोद में लिए बैठी रहीं। सवेरा होते ही देवताओं का दरबार भंग हुआ। साधु भी वहां से चलकर गांव में चला आया।

साधु गांव में भिक्षा मांगता उसी अधब्याही लड़की के घर आया। लड़की ने उसके लिए भोजन बनाकर तैयार किया। बाबाजी भोजन करने बैठे। तब लड़की ने तीन पत्तल परोसकर एक को अधब्याहे वर के नाम से अलग सरका दिया, एक पत्तल बाबाजी के सामने परोसा और एक पत्तल उसने अपने सामने रखा।

बाबाजी ने अपने आप कहा- “वाह ! जो बात वहां देखने में आई थी, वही बात यहां भी देखने में आई।” लड़की ने पूछा- “क्या कहा बाबाजी ?” बाबा ने बात टालते हुए कहा- “हम वैरागी लोग ऐसी अनेक बातें कहा करते हैं। तुमको इन बातों से क्या प्रयोजन हैं? तुम तो भोजन करो और भगवान का भजन करो।” लड़की हठ कर गई।

उसने कहा कि जब तक आप इसका भेद नहीं बतलायंगे, मैं भोजन नहीं करूंगी। फिर भी बाबा चुप रहे। तब लड़की बोली कि आप साधु हैं, मैं सती हूं। आप या तो उस वचन का भेद बताइये, जो आपने कहा है या मेरा शाप लीजिये। तब बाबा ने रात का सारा हाल उसे बता दिया। अन्त में उसने बाबा के साथ उस पीपल के पास जाना निश्चय किया।

बाबा आगे-आगे चले, लड़की उसके पीछे हो ली। बाबा लड़की को पारस पीपल के पास छोड़कर चले गये। जब सन्ध्या हुई, तब नित्य की तरह झाडूदार ने झाडू लगाई, सक्का ने जमीन छिड़की, माली ने फूल बिखराये। राजा इन्द्र आये और परियों का नाच-गाना होने लगा। उसी समय दशारानी पीपल पर से उतरकर दरबार में बैठीं।

लड़के ने सुरा गाय से दूध लिया और उसने अधब्याही का कटोरा अलग रखकर ज्योंही अपना कटोरा मुंह से लगाया, त्योंही लड़की कटोरा हाथ में लेकर वर के सामने आ गई। वह बोली कि अपना भाग लेने के लिए मैं उपस्थित हूं और जो आज्ञा दी जाय, सो सेवा करूं।

तब वह बोला कि मैं इस तरह तुमको नहीं मिल सकता। मैं दशारानी की सेवा में रहता हूं। अभी मुझे दरबार में जाकर उन्हीं की गोद में बैठना होगा। यदि तुम मुझको चाहती हो, तो दशारानी को प्रसन्न करके उनसे मुझको मांग लो। तब मैं तुम्हारा हो सकता हूं।

लड़का दशारानी की गोद में जा बैठा। लड़की अप्सराओं के साथ नाचने लगी। जब सवेरा हुआ तब दशारानी ने कहा कि यह नई नाचने वाली लड़की बहुत नाची है। उसे बुलाकर उन्होंने कहा कि मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग ले जो कुछ मांगना हो।

लड़की ने दशारानी से वचन ले लिया कि जो मांगूं सो पाऊं। तब उसने दौड़कर अपने पति को पकड़ लिया और कहा कि मुझे यही चाहिए। दशारानी ने कहा- ” तूने मांगा तो बहुत, परन्तु मैं वचन दे चुकी हूँ, इस कारण तेरा वर तुझे दे देती हूं।”

राजा इन्द्र ने पूछा कि भगवती। यह सब क्या भेद है, जरा मुझे भी बताइये ? तब दशारानी बोली कि यह लड़का मेरे ही वरदान से पैदा हुआ था। इसकी माता ने मनौती मानी थी कि जब लड़का पैदा होगा तब सुहागिनों को न्योता दूंगी, परन्तु उसने आज तक अपना वचन पूरा नहीं किया। इसी कारण मैं अपने दिये हुए बालक को विवाह मण्डप से हर लाई थी।

यह इसकी अधब्याही स्त्री है, परन्तु पतिव्रता है। इसी कारण यह देव-समाज में पहुंचकर मुझसे अपना पति छीने लिये जाती है। दशारानी के ऐसे वचन सुनकर इन्द्र समेत सब देवताओं ने वर-कन्या के ऊपर फूल बरसाये ।

तब तक साधु बाबा भी वहां आ गये। साधु बाबा, उसके पीछे दूल्हा और उसके पीछे लड़की, इस प्रकार तीनों गांव की ओर चले। जब वे लोग गांव के समीप पहुंचे, तब लोगों ने लड़की के पिता को खबर दी कि तुम्हारी लड़की अपने दूल्हा के साथ आ रही है।

जिस दिन से लड़की चली गई थी, प्रथम तो उसी घड़ी से वह लोकापवाद के मारे घर से बाहर नहीं निकलते थे, अब जो और भी नई बात सुनने में आई तो उसने किवाड़ बन्द कर लिये। उसने समझा लड़की बाबा के साथ आ रही होगी, उसी सम्बन्ध में लोग मेरा उपहास कर रहे हैं।

किन्तु, जब गांव के गणमान्य और प्रतिष्ठित लोगों ने भी उससे वही बात कही, तब वह लजाता- शरमाता घर से बाहर आया, और जब उसने दरवाजे पर सचमुच लड़की के साथ दामाद को खड़ा देखा तब उसकी प्रसन्नता का पार न रहा। उसने इसी खुशी में बहुत दान-पुण्य किया, बधाई बजवाई और फिर से विवाह की तैयारी की परन्तु लड़की ने अपनी माता से कहा कि इस तरह ब्याह पूरा नहीं पड़ेगा।

वहां सुहागिनों को न्योता देकर जब बारात यहां आये तब विवाह के नेग किये जायें। लड़की के बाप ने लड़के के घर खबर भेजी। वहां सुहागिनों को न्योतकर बारात चली। बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। वर-बहू दोनों अपने घर गये। तब फिर से लड़के की माता ने सुहागिनें न्योतीं ।

उसी समय से विवाह में भांवरों के दिन वर के घर सुहागिनें न्योतने की चाल चली है। दशारानी ने जैसी सती की दशा फेरी वैसी वह कथा के श्रोता-वक्ता सभी का कल्याण करें।

दशा माता की सातवीं कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-7)

एक बुढ़िया ब्राह्मणी थी। वह बहुत गरीब थी। उसका एक लड़का भी था। एक दिन वह लड़के से बोली कि बेटा! कुछ ऐसा उद्यम करो, जिससे चार पैसे की आय हो और अपना निर्वाह हो । अब मेरे तो हाथ पैर नहीं चलते।

तब लड़का गांववालों के गोरु चराने लगा। एक दिन लड़का पशुओं को पानी पिलाने नदी के घाट पर गया। वहां स्त्रियां स्नान करके दशारानी के गंडे ले रही थीं। उनका एक गंडा अधिक था।

उनमें से एक ने कहा कि पूछो तो यह लड़का किसका है ? यदि किसी उच्च वर्ण का हो, तो इसी को गंडा दे दें। एक स्त्री ने लड़के से पूछा कि तुम्हारे घर में कौन है ? लड़के ने जवाब दिया कि मेरी एक बुढ़िया माता है । फिर स्त्री ने पूछा कि तुम कौन वर्ण हो ? वह बोला कि हूं तो ब्राह्मण, पर कोई काम न मिलने के कारण गोरू चराता हूं।

स्त्रियों ने लड़के को एक गंडा देकर कहा कि तुम इसे घर ले जाकर अपनी माता को देना और कहना कि इसका पूजन और व्रत करे। हम लोग तुमको सीधा और पूजा की सामग्री भी देते हैं, सो भी ले जाकर माता को दे देना।

लड़के ने गंडा ले लिया। फिर सब स्त्रियों ने उसे सीधा दिया। लड़का उस सामान की गठरी बांधकर घर आया। उसने दरवाजे से ही माता को पुकारते हुए कहा कि गठरी उतार ले, बोझ से मरा जाता हूं।

माता दौड़ी आई। गठरी का सीधा सामान देखकर वह बहुत खुश हुई। उसने लड़के से पूछा कि यह सब कहां से लाये हो ? लड़के ने बुढ़िया से सब हाल कहकर दशारानी का गंडा भी उसे दे दिया।

बुढ़िया ने गंडे को प्रेमपूर्वक माथे से लगाया। उसी दिन से वह व्रत करने लगी। नौ दिन कथा-कहानी कहती रही। दसवें दिन उसने गंडे के पूजन की तैयारी की। वह देहरी के बाहर लीप रही थी कि उसी समय एक अति वृद्ध दरिद्र स्त्री द्वार पर आकर बोली कि क्या करती हो बहन ? उसने जवाब दिया कि आज मेरे घर दशारानी का पूजन है, इसलिए लीप रही हूं।

तब वृद्ध स्त्री ने कहा कि मुझे बहुत प्यास लगी है, थोड़ा पानी पिला दो। तब बुढ़िया ने कहा कि मैं तो मिट्टी के बरतन से पानी पीती हूं, लोटा-लुटिया मेरे कुछ है ही नहीं, तुमको पानी दूं तो काहे से दूं? एक कटोरी ही मेरे घर में है, वह भी न जाने कहां पड़ी होगी। जरा तुम ठहरो, कटोरी उठा लाऊं, तब तुमको पानी पिलाऊंगी।

बुढ़िया हाथ धोकर कटोरी लेने अन्दर गई। तब तक मैली-कुचैली बुढ़िया, जो स्वयं दशारानी थी, उसकी घिरौंची पर एक सोने का घड़ा रखकर अन्तर्द्धान हो गई। बुढ़िया कटोरी लेकर घिराँची के पास गई। वहां सोने का घड़ा रखा देखकर वह बहुत घबराई और अपने मन में सोचने लगी कि यह धूर्त कहां की बला उठाकर रख गई है। मुझे चोरी लगेगी, बुढ़ापे में इज्जत जायगी।

वह इसी चिन्ता में बुढ़िया की खोज में बाहर निकली। तब तक उसका लड़का आ गया। उसने पूछा कि किसे खोजती हो मां ? वह बोली कि एक बुढ़िया न जाने कहां से आई और यहां सोने का घड़ा रखकर भाग गई है।

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दशा माता

लड़के ने कहा कि वही तो दशारानी थीं। उन्होंने यह घड़ा तुमको दे दिया है। अब की जो फिर कभी आवे तो उनका अच्छी तरह स्वागत करना और सब प्रकार से उनकी आज्ञा-पालन करना। तुम जब नहाने जाओ तो नदी के घाट पर जो चीजें तुमको मिलें, उनको दशारानी का दिया हुआ समझकर अंगीकार करना, किसी से पूछताछ ना करना कि यह चीज किसकी है, यहां कहां से आई है ?

बुढ़िया नदी में नहाकर खड़ी हुई, तो सामने सोने का गेडुआ भरा-भराया रखा दिखाई दिया और उत्तम वस्त्र एक किनारे रखे थे। बुढ़िया ने किसी से पूछताछ किये बिना ही उन वस्त्रों को पहन लिया। गेडुआ हाथ में लेकर वह घर चलने को तैयार हुई।

तब चार कहार डोली लिये आ पहुंचे और बुढ़िया से बोले कि यह डोली तुम्हारे लिये आई है, इसी में बैठकर घर चलो। बुढ़िया डोली में बैठकर घर आई, तो देखती क्या है कि जहां उसकी टूटी-फूटी झोपड़ी थी, वहां कंचन के महल खड़े हैं।

बुढ़िया ने महल के भीतर जाकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दशारानी के गंडे की पूजा की और अन्त में हाथ जोड़कर यह वरदान मांगा कि महारानी! जैसे तुमने मुझको यह सम्मति दी है, वैसे ही मेरे लड़के का विवाह हो जाय, तब यह सब शोभा दे।

कुछ दिनों बाद लड़के का विवाह हो गया और बहुत ही सुन्दर सुशीला बहू घर में आ गई। तब बुढ़िया ने दशारानी से दूसरा वर मांगा कि जैसे मेरे बहू-बेटा हैं, वैसे ही नाती पाऊं। कुछ दिनों बाद बुढ़िया के लड़के को भी लड़का हो गया।

एक दिन बुढ़िया ने बहू को समझाया कि मेरी यह सब सम्पत्ति दशारानी की दी हुई है। उन्हीं की कृपा से तुम भी इस घर में आई हो। यदि मैं मर जाऊं और एक मैली-कुचैली बुढ़िया तुम्हारे घर आये तो उसका विनयपूर्वक स्वागत करना।

यदि उसकी नाक बहती हो उसे आंचल के छोर से पोंदना, घिन नहीं करना । प्रार्थना करना कि हे माता! यह सब आपका ही दिया हुआ है। जब कभी दशारानी के गंडे पड़ें, तब उनको अवश्य लेना और श्रद्धापूर्वक उनका पूजन करना। जब कभी तुम पर कोई संकट पड़े, तब सुहागिनें न्योतना । दशारानी की कृपा से तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी होंगी।

कुछ दिनों बाद बुढ़िया मर गई। तब दशारानी ने सोचा कि अब चलकर देखना चाहिए कि वह सास के वचन को कहां तक पालन करती है? अतः वह एक वृद्धा भिखारिणी का वेश धारण कर उसके घर आई। उन्हें देखते ही बहू उठकर खड़ी हो गई, पांव पड़े, दण्डवत की और बालक को उसकी गोद में डाल दिया।

उसकी ऐसी श्रद्धा-भक्ति देखकर दशारानी ने आशीर्वाद दिया कि तेरी धर्म बुद्धि है, तो भगवान सदैव तेरा भला करेगा, भण्डार भरपूर रहेगा, कभी किसी बात की चिन्ता तुझे न सतायेगी, जो इच्छा करेगी सो फल पायेगी।

दशारानी ने जैसी कृपा-दृष्टि बुढ़िया ब्राह्मणी पर की वैसी ही, अपने सब भक्तों पर करें। कथा के श्रोता-वक्ता सभी का कल्याण हो।

दशा माता की आठवीं कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-8)

एक राजा के दो रानियां थीं। राजा की अति प्यारी रानी का नाम था लक्ष्मी देवी। इसी कारण राजा की दूसरी रानी पटरानी होने पर भी कुलक्ष्मी कहलाती थी।

एक दिन लक्ष्मी रानी ने मान किया। वह काठ की पाटी ले, मलिन वस्त्र पहन कोप भवन में जा लेटी। राजा ने उससे पूछा कि तुम चाहती क्या हो ? वह बोली कि कुलक्ष्मी रानी को देश निकाला दे दो।

राजा की प्यारी न होते हुए भी कुलक्ष्मी रानी पटरानी थी। लोक-लज्जा के कारण उसे सहसा निकाल सकने से लाचार होकर राजा ने उन्हें उनके नैहर भेजने का निश्चय किया। उन्होंने रानी को एक पीनस में सवार कराया और आप घोड़े पर सवार होकर साथ चले।

एक सघन वन में पहुंचकर राजा ने पीनस रखवा दी और कहारों को वहां से हटवा दिया। इसके बाद वह घोड़ा दौड़ाते हुए अपने महल में जा पहुंचे। कुलक्ष्मी रानी को बाट देखते सारी रात बीत गई।

सवेरा हो गया। रानी को प्यास लगी हुई थी, इसलिए वह डोली से बाहर निकली। उसने देखा कि डोली एक पीपल के वृक्ष के नीचे रखी है, दूर तक कहीं आबादी का नामोनिशान नहीं है। रानी ने आसपास पानी खोजा, परन्तु कहीं कोई जलाशय दिखाई नहीं दिया।

रानी ने एक सारस की जोड़ी को एक तरफ जाते देखा। वह उसी के पीछे हो गई। चलते-चलते वह कुछ देर के बाद एक नदी के तट पर पहुंच गई। रानी ने उसी नदी में शौचादि से निवृत्त होकर स्नान किया और जल पिया। जिस घाट पर रानी ने स्नान किया, उसी घाट पर कुछ स्त्रियां स्नान कर रही थीं।

स्नान करके उन्होंने दशारानी के गंडे लिये। उनके पास एक गंडा अधिक था। एक ने रानी से गंडा लेने के लिए कहा। रानी गंडा लेकर वहां से चली आई और अपने डोले में आकर बैठ गई।

थोड़ी देर में दशारानी एक बुढ़िया का वेश धारण कर आई और रानी से बोली कि बेटी यहां बैठी क्या कर रही है ? रानी ने पूछा कि पहले तुम यह बताओ कि तुम कौन हो ? बुढ़िया ने कहा कि मैं तो तेरी मौसी हूं। तब रानी उसके गले से लिपटकर रोने लगी। उसने अपनी विपत्ति की कहानी आद्योपान्त बुढ़िया को कह सुनाई और अन्त में यह कहा कि अब मुझे केवल तुम्हारा आश्रय और भरोसा है।

दशारानी की कृपा से उसी जगह माया का शहर बस गया। रानी के भाई भौजाई आदि सारा नैहर आप ही वहां प्रकट हो गया। रानी ने अपने परिवार में मिलकर नौ दिन तक दशारानी के माहात्म्य की कथा-कहानियां कहीं।

दसवें दिन गंडे की पूजा होती थी। उसी दिन सवेरे दशारानी ने कहा कि तुम आज नदी में स्नान करने जाओगी, वहां तुमको जो स्वर्ण कलश मिलें, उसको ले लेना और जो डोली तुमको लेने के लिए आये, उसमें निःसंकोच सवार हो जाना। किसी प्रकार संकल्प-विकल्प में पड़कर यह मत पूछना कि डोली किसकी है?

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दशा माता

रानी नदी में स्नान करने गई। वह स्नान करके जल से बाहर निकली, तो किनारे दो सोने के कलश रखे दिखाई दिये। उन्हीं के पास सुन्दर रेशमी वस्त्र संवारे हुए रखे थे। रानी ने वस्त्र बदलकर घड़े भरे, और ज्योंही अपने स्थान की ओर चलना चाहा त्योंही एक डोला सामने से आता दिखाई दिया। रानी समझ गई कि हो न हो इसी डोली के बारे में मौसी ने मुझे सूचना दी थी।

वह फौरन डोली में सवार होकर अपने घर आई। वहां माया के परिवार की सब स्त्रियों समेत रानी ने दशारानी के गंडे की पूजा की, सुहागिनों को भोजन कराये, तब पारण किया । तदनन्तर रानी अपने नैहर के परिवार में आनन्दपूर्वक हिल-मिलकर रहने लगी।

कुछ दिनों बाद सहसा राजा को रानी का स्मरण हुआ। उसके ध्यान में आया कि कुलक्ष्मी रानी को जिस दिन से जंगल में छोड़ आया हूं, उसी दिन से आज तक उसका कोई समाचार नहीं मिला, चलकर देखना तो चाहिए कि उसकी क्या गति हुई है।

जब वह रानी को खोजने के लिए चलने लगा, तब मंत्रियों ने समझाया कि अब रानी का आप से मिलना नहीं हो सकता। राजा ने किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया। वह चलता चलता उस स्थान पर पहुंचा जहां वह रानी का डोला रख आया था। परन्तु उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जहां सघन वन था, वहां सुन्दर नगर बसा हुआ है।

राजा के प्रश्न करने पर लोगों ने कहा कि यह कुलक्ष्मी रानी का नगर है। तब तो राजा और भी आश्चर्य में डूब गया। वह बार-बार यही विचार करता था कि यह जगह तो वही है, जहां मैं अपनी रानी को छोड़ गया था। क्या उसी के नाम से यह नगर बसा हुआ है।

राजा ने महलों के पास जाकर इत्तिला कराई कि अमुक राजधानी का राजा मिलने आया है। रानी ने राजा को पहचान कर उत्तर दिया कि मैं ऐसे दगाबाज राजा से मिलना नहीं चाहती। परन्तु उसकी मौसी ने समझाया कि पति परमेश्वर के बराबर होता है। उससे विमुख होकर कभी पीठ न देनी चाहिए। तुमको यही उचित है कि उनका स्वागत करो, यथाशक्ति सत्कार करो और नियमपूर्वक मिलो।

रानी ने राजा को महल के भीतर बुलवाया और वहीं डेरे पर ठहराया। दोपहर को राजा भोजन करने गये। उनके साथ एक नाई था। वह भी राजा के समीप ही खाने को बैठा। रानी राजा तथा उस नाई को परोसने लगीं।

पहली बार ज्योंही रानी ने नाई के सामने पत्तल रखी, त्योंही उसने रायते का एक छींटा रानी के पैर पर डाल दिया। रानी ने उसकी इस क्रिया को नहीं जाना। दूसरी बार रानी परोसने आई तब दूसरी पोशाक पहनकर आई। राजा मन में सोचने लगा कि यहां तो एक क्या, कई रानियां हैं। सभी एक-सी हैं। इनमें यदि मेरी रानी हो, तो मैं उसे पहचान नहीं सकता।

डेरे पर आकर राजा ने नाई से कहा कि यहां तो कई रानियां हैं। यह कैसे मालूम हो कि अपनी रानी कौन है ? नाई बोला कि रानी तो एक ही है, वह पोशाकें बदल-बदलकर परोसने आई, इससे आपको भ्रम हुआ है। राजा ने पूछा कि तूने कैसे जाना कि रानी एक ही है।

वह बोला कि मैंने पहले ही रानी के पैर पर रायते का छींटा डाल दिया था। जब दूसरी बार वह परोसने आई, तब भी उसके पैर पर वह छींटा पड़ा था और जब तीसरी बार आई, तब भी छींटा बदस्तूर देखा।

इसी बीच रानी ने राजा को अपने महल में बुलाया। यहां सेज सजी हुई थी। उसी पर राजा को बिठाकर उसने पान दिये। राजा लेट गया, रानी पैर दबाने लगी। तब राजा ने कहा कि रानी! बहुत दिन हो गये, अब राजधानी चलो।

रानी ने जवाब दिया कि मैं नहीं जाती। उस दिन को याद कीजिये। मैंने ऐसा क्या अपराध किया था जिसके कारण आपने मुझे वनवास दिया ? आपने जिस सौत की बात मानकर मेरा अनादर किया था, अब उसी को लिए हुए बैठे रहिये। आप तो मेरा सर्वनाश कर चुके थे। यह तो सब मेरी मौसी की बदौलत है कि मैं जीती बच गई।

इस पर राजा ने रानी को बहुत समझाया और अपने किये पर पश्चात्ताप करते हुए माफी मांगी। तब रानी बोली कि मैं केवल एक शर्त पर आपके साथ चल सकती हूं। आप मेरी मौसी से यह वरदान मांगिये कि यह शहर और यह बाग-बगीचे आपकी राजधानी के समीप पहुंच जायं, जिससे जब मेरा जी चाहे आपके महल में रहूं और जब जी चाहे, तब मौसी के दिए हुए महल में चली जाऊं। मेरी मौसी बड़ी दयावान और भोली-भाली हैं। सम्भव है वह आपकी बात को न टालें। राजा ने रानी की मौसी (दशारानी) के पास जाकर निवेदन किया।

उसी समय दोनों शहर पास-पास हो गये, मानों एक दूसरे के ही भाग हैं। राजा ने दशारानी की कृपा का प्रभाव जानकर शहर भर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि सभी लोग दशारानी की पूजा किया करें।

भगवती दशारानी ने कुलक्ष्मी रानी पर जैसी कृपा की, वैसी वह आपत्ति में पड़ी हुई स्त्री मात्र पर दया करके उसे ठिकाने लगावें ।

दशा माता की नौवीं कथा (Dasha Mata Vrat Katha Day-9)

एक वृक्ष पर दो पक्षी (नर और मादा) रहते थे। मादा पक्षी के बच्चे नहीं होते थे। जब वह चार चिड़ियों में मिलकर बैठती तब प्रायः वे उसको बन्ध्या कहकर उससे घृणा करती थीं। इससे चिड़िया अपने चित्त में अत्यन्त दुःखी रहती थी। वह चिड़ियों के समाज से बहुत कम मिलती-जुलती थी।

एक दिन वह अपनी स्थिति पर विचार करती हुई अकेली एक नदी में पानी पीने गई। वहां स्त्रियां दशारानी के गंडे ले रही थीं। उनका एक गंडा अधिक था। उन्होंने आपस में कहा कि यहां कोई स्त्री या मनुष्य तो है नहीं, जिसको यह गंडा दे देते, ना हो इस चिड़िया के गले में गंडा बांध दो। यह नित्य इसी जगह आकर कथा सुन लिया करेगी। इसको पूजन की विधि बतला दी जायगी, तो पूजन के दिन यह पूजन भी कर लेगी।

तदनुसार उन्होंने चिड़िया के गले में गंडा बांधकर उसे समझा दिया कि नौ दिन तक बराबर तू इसी जगह आकर कथा सुन लिया कर। दसवें दिन इक्कीस गेहूं लाकर एक गेहूं दशारानी के नाम नदी में डाल देना। बाकी बीस गेहूं तुम खुद चुन लेना। चिड़िया ने नौ दिन तक प्रेमपूर्वक कथा-कहानी सुनी। दसवें दिन स्त्रियों की बताई विधि के अनुसार गंडा पानी में डालकर पारण किया।

dasha mata vrat
दशा माता

कुछ दिनों के बाद उस चिड़िया के बहुत बच्चे पैदा हुए। अन्य चिड़ियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बोलीं कि इसके तो बच्चे होते ही नहीं थे, यह कैसे हुए! वह बोली कि जब मेरे बच्चे नहीं थे, तब तो तुम लोग मुझको बन्ध्या कहकर दुत्कारती थीं, अब जो दशारानी ने मुझको दिये, तो तुम कोसती हो।

चिड़ियों ने उससे पूछा तो उसने गंडा लेने का हाल क्रमशः कह सुनाया और सबको पूजा की विधि भी बतला दी। तब जंगल की सब चिड़ियां दशारानी का व्रत करने लगीं।

दसवें दिन (Dasha Mata Vrat Katha Day-10) गंडे की पूजा के बाद पहले दिन ही की कथा कही जाती है। यही दसवें दिन की पूजा होती है।

दशामाता की आरती (Dasha Mata Ki Arti)

आरती श्री दशा माता की |
जय सत-चित्त आनंद दाता की |
भय भंजनि अरु दशा सुधारिणी |
पाप -ताप-कलि कलुष विदारणी|
शुभ्र लोक में सदा विहारणी |
जय पालिनी दिन जनन की |
आरती श्री दशा माता की ||

अखिल विश्व- आनंद विधायिनी |
मंगलमयी सुमंगल दायिनी |
जय पावन प्रेम प्रदायिनी |
अमिय-राग-रस रंगरली की |
आरती श्री दशा माता की ||

नित्यानंद भयो आह्लादिनी |
आनंद घन आनंद प्रसाधिनी|
रसमयि रसमय मन- उन्मादिनी |
सरस कमलिनी विष्णुआली की |
आरती श्री दशा माता की ||

FAQ

Q. दशा माता का व्रत क्यों रखा जाता है?
Ans. दशा माता का व्रत घर-परिवार की सुख, शांति और समृद्धि के लिए किया जाता है।

Q. दशा माता का व्रत कौन कौन कर सकता है?
Ans. जो महिलाएं शादी शुदा हैं, सुहागिन हैं, वो इस व्रत को कर सकती हैं।

Q. दशा माता के व्रत के दिन क्या खरीदना चाहिए?
Ans. इस दिन साफ-सफाई की जाती हैं। गैर-जरूरी चीजें घर से बाहर रख दी जाती हैं। इस दिन साफ-सफाई से जुड़े सामान खरीद सकते हैं, जिसमें झाड़ू भी शामिल है।