महर्षि दयानन्द सरस्वती पर निबंध | Essay On Maharshi Dayananda Saraswati

Essay On Maharshi Dayananda Saraswatiमहर्षि दयानन्द सरस्वती पर निबंध

Essay On Maharshi Dayananda Saraswati: भारत के सामाजिक सुधार में गुजरात का भी बड़ा बहुमूल्य सहयोग रहा है। महात्मा गांधी, सरदार पटेल गुजरात की ही देन हैं, महर्षि दयानन्द सरस्वती (Maharshi Dayananda Saraswati) भी गुजरात के ही रत्न हैं जिन्होंने सामाजिक सुधार में अग्रगण्य स्थान प्राप्त किया है।

धार्मिक क्षेत्र में महर्षि दयानन्द (Maharshi Dayananda Saraswati Biography) ने जो काम किया, वह ‘न भूतो न भविष्यति’ वे एक प्रकार से संस्कृति के रक्षक और उन्नायक थे। उन्होंने मनुष्य समाज को आलस्य और अकर्मण्यता के स्थान पर उद्योग और श्रमनिष्ठा का मन्त्र दिया, तथा धार्मिक आडम्बर और पाखण्ड को दूर कर उसके स्थान पर धर्म को अधिकाधिक मानसिक बनाया, ताकि सब उसके साथ जुड़ सकें।

(Essay On Maharshi Dayananda Saraswati)

दूषित धार्मिक परम्पराओं का उत्पादन कर उसके स्थान पर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मानवोपयी सुन्दर लाभदायक परम्पराओं को जन्म दिया तथा धर्म के मूल तत्वों से लोगों को परिचित कराया, जातिभेद अस्पृश्यता के उस भाव को दूर करने का प्रयोग किसी-

Essay On Maharshi Dayananda Saraswati
महर्षि दयानन्द पर निबंध

भाग और ईसाई बन जाते थे, उन्हें हिन्दू धर्म की महानता दिखाकर उन्हें फिर से हिन्दू धर्म में किया धर्म को टूटने से बचाया। महर्षि दयानन्द ने हिन्दू जाति को भी संगठित किया, जातीय संकीर्णता और विषमता के वे शत्रु थे। उन्होंने इन दूषित सामाजिक परम्पराओं को जड़ सहित समाज से उखाड़ फेंकने का प्रबल प्रयत्न किया।

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हिन्दू धर्म में अनेक परिवर्तन कर उसे हर दिशा में उपयोगी बनाने की कोशिश भी की। इसके लिए उन्हें मुस्लिम समाज और ईसाई मिशनरियों से टक्कर भी लेनी पड़ी। महर्षि दयानन्द ने केवल धार्मिक और सामाजिक सुधार ही नहीं किए, देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए भी उन्होंने अथक प्रयत्न किया।

महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म और परिवार (Maharshi Dayananda Saraswati’s Birth and Family)

महर्षि दयानन्द का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात प्रान्त के मोरवी राज्य के टंकारा नामक गाँव में हुआ था। वे सम्पन्न और जमींदार परिवार में पैदा हुए थे। वो जाति के ब्राह्मण थे, उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। उनके पिता का नाम कर्षन जी था। यज्ञोपवीत के बाद ही उनके पठन-पाठन की व्यवस्था की गई थी। उन्हें शुरुआत से ही संस्कृत ही पढ़ाई गई।

अमरकोष और लघुकौमुदी महर्षि दयानन्द जी को प्रारम्भ में हो कंठस्थ कराए गये  यजुर्वेद की ऋचाएँ भी रटाई गईं और बहुत ही कम समय में उन्होंने संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।

महर्षि दयानन्द के पिता शैव धर्म के मानने वाले ये तथा पुरातनवादी थे, उनके घर में शिव की पूजा होती थी। जब बालक मूलशंकर की अवस्था 13 वर्ष की थी, तो उनके घर में शिवरात्रि का महापर्व मनाया गया, उन्होंने भी परिवार के सदस्यों के साथ व्रत रखा तथा रात्रि को जागरण किया, शिवलिंग के पास बैठकर वे भी जप करते रहे, आधी रात को एक चूहा आकर शिवलिंग पर बैठ गया तथा वहां रखे भोग को खाने लगा।

बालक मूलशंकर यह दृश्य देखकर आश्चर्य में पड़ गए, वे सोचने लगे, अनन्त शक्तिशाली भगवान चुप हैं, इस उत्पाती चूहे को दण्डित नहीं कर रहे हैं। फिर तो सगुण पूजा से उनका मन ही उचट गया, सारी जनता अन्ध भक्ति में टूबी हुई थी, वे अकेला क्या करते, सोचकर ही रह गए।

इस घटना के कुछ वर्ष बाद ही उनकी बहन का निधन हो गया। उसे भी भगवान शिव ना बचा सके, फिर तो संसार और सांसारिकता के प्रति बालक मूलशंकर के मन में अरुचि उत्पन्न हो गई। वह संसार की ममता को काटकर वे परम विरागी बन गए।

मूलशंकर के पिता भीतर ही अपने पुत्र के वैराय को देखकर चिंतित रहने लगे। पिता ने सोचा यदि मूलशंकर का विवाह कर दिया जाए तो कदाचित संसार के प्रति उसकी आसक्ति बढ़े। आखिर विवाह का दिन आया, शुभ गीत गाए जाने लगे, जब एक ओर विवाह का उत्साह मनाया जा रहा था, दूसरी तरफ अवसर पाकर मूलशंकर घर छोड़कर भाग गए। पैदल चलकर वे अहमदाबाद पहुंचे, वहां से बड़ौदा गए और कुछ दिन बिताए। नर्मदा तट पर साधु सम्पासियों के बीच रहकर ज्ञान प्राप्त किया, पर अधिकांश सन्यासी उन्हें ढोंगी और पाखण्डी ही नजर आए।

सन् 1860 में मथुरा में वे साधु विरजानन्द से मिले। वे नेत्रहीन थे, फिर भी उन्हें व्याकरण और वेद का अच्छा ज्ञान था। विरजानन्द भी देश के धार्मिक आडम्बरों से त्रस्त थे। उन्होंने ही महर्षि दयानन्द को वैदिक धर्म के प्रचार के लिए अनुप्रेरित किया। ताकि लोगों की अज्ञानता की अधे खुलें और वेद मर्यादा की रक्षा भी हो सके ।

गुरु की प्रेरणा से प्रेरित होकर और आशीर्वाद पाकर महर्षि दयानन्द वैदिक धर्म का प्रचार घूम-घूम कर करने लगे। उनके पास कुछ ना था। केवल बुद्धि बल था। उन्होंने हरिद्वार के कुम्भ मेले में ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ लगाकर लोगों को धर्म का मूल तत्व समझाना प्रारम्भ किया।

इस मेले में उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली, पर अनेक अनुयायी मिले। दयानन्द को शास्त्रों का अथाह ज्ञान था। वे लोगों से शास्त्रार्थ करते। उन्हें अनेक बार शास्त्र चर्चा में विजय मिली। काशी में जाकर महर्षि स्वामी दयानन्द ने अनेक शास्त्रार्थ किए और धार्मिक विद्वानों को परास्त किया। फिर तो सारे देश में उनकी विजय पताका फहरा उठी। सारे भारत में वे मशहूर हो उठे।

वह समय सामाजिक सुधार का था। राजा राममोहन राय सती प्रथा के विरोध में और विधवा विवाह के पक्ष में आन्दोलन कर रहे थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्त्री शिक्षा पर जोर दे रहे थे। महर्षि दयानन्द समाज के सर्वागीण विकास पर जोर देने लगे। एक ओर उन्होंने अन्धविश्वास, धार्मिक पाखण्ड और मूर्ति पूजा का विरोध किया तो दूसरी ओर स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह पर जोर दिया।

बाल-विवाह को भी सामाजिक बुराई मानकर उसका भी अन्त करने के लिए लोगों को प्रेरित किया। सन् 1875 में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। फिर तो आर्य समाज के सिद्धान्त देश में चारों ओर फैल गए। देश के बड़े-बड़े नगरों में आर्य मन्दिर स्थापित हुए। उनके तत्वावधान में स्त्री शिक्षा की आवाज जोर-शोर से उठाई गई।

स्वामी दयानन्द हिन्दी प्रेमी थे, देश की एक सम्पर्क भाषा चाहते थे। इस कारण उन्होंने गुजराती होते हुए भी हिन्दी को अपनाया और उसी में भाषण दिया। उन्होंने हिन्दी की लोकप्रियता खूब बढ़ाई। हिन्दी को विकसित करने में स्वामी दयानन्द के प्रयत्न को नहीं भुलाया जा सकता।

भारत पर अंग्रेजों का राज्य था, लोग धीरे-धीरे विदेशी सभ्यता और संस्कृति की ओर प्रभावित हो रहे थे। यह भी स्वामी दयानन्द को सहन ना था। उन्होंने संस्कृत साहित्य के अध्ययन पर बल दिया तथा पूर्वजों के प्रतिनिष्ठा और श्रद्धाभाव जागृत किया। ईसाई पादरियों को अंग्रेजी शासन का बल प्राप्त था। स्वामी दयानन्द ने उनके बढ़ते प्रभाव को कम किया। वैदिक धर्म की महानता उन्होंने लोगों के सामने रखी और लोगों की अज्ञानता दूर की।

Essay On Maharshi Dayananda Saraswati
महर्षि दयानन्द पर निबंध

‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उन्होंने वैदिक धर्म की महानता प्रदर्शित की है। स्वामी दयानन्द के अथक प्रयास से हिन्दू धर्म की रक्षा हुई। उनके धर्म से शिक्षित जनता बेतरह प्रभावित हुई। उनके विचार बड़े बौद्धिक और जनहित कारक होते थे।

स्वामी दयानन्द बड़े स्वाभिमानी थे। स्वतन्त्रता अर्थ समझते थे। वे परतन्त्रता के घोर विरोधी थे। वे राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए पहिले देशी रियासतों के राजाओं को संगठित करना चाहते थे। इस कार्य का ठीक से श्रीगणेश नहीं कर पाए थे, कि उन्हें यह संसार छोड़ना पड़ा।

जोधपुर के राजा जसवंतसिंह स्वामी दयानन्द के प्रशंसकों में से थे। एक बार उनके आग्रह पर जोधपुर पहुंचे, वहां उन्होंने राजा के पास एक वेश्या को देखा, उन्होंने राजा के सामने ही वेश्या को अपमानित किया। वेश्या हिंसा की भावना से भर उठी, उसने रसोइए के साथ मिलकर स्वामी दयानन्द के भोजन में विष डलवा दिया। सारा शरीर विष प्रभाव से जर्जर हो उठा। उपचार हुए पर व्यर्थ गए। अन्त में दीपावली के दिन वेद मन्त्रों का पाठ करते हुए अपना नाशवान शरीर छोड़ा। स्वामी दयानन्द ने 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में अंतिम सांस ली।

निष्कर्ष (Conclusion)

शरीर रह गया, आत्मा परमात्मा में जाकर विलीन हो गई। हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए उनका जन्म हुआ था। यथा शक्ति उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा की। अधूरा कार्य शिष्यों पर छोड़कर वे परलोकवासी हुए। स्वामी दयानन्द सच्चे अर्थ में हिन्दू थे। जीवन भर हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म की सेवा करते रहे, वे आज मरकर भी अमर हैं। उनका यश शरीर आज भी हमारे सामने है।

FAQ

Q. स्वामी दयानंद का जन्म कब हुआ था?
Ans. महर्षि दयानंद सरस्वती 12 फरवरी 1824 को टंकारा (गुजरात) में हुआ था।

Q. स्वामी दयानंद क्यों प्रसिद्ध है?
Ans. स्वामी दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर तिवारी था। वह आधनिक भारत के चिंतक थे। उन्हें आर्य समाज का संस्थापक भी माना जाता है।

Q. दयानंद सरस्वती के गुरू कौन थे?
Ans. स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरु का नाम स्वामी विरजानंद था, जो उच्च कोटि के विद्वान थे।

Q. दयानंद कितने साल भारत में घूमते रहे?
Ans. स्वामी दयानंद सरस्वती 1845 से 1869 तक करीब 25 साल तपस्वी के रूप में भटकते रहे।

Q. स्वामी दयानंद का निधन कब हुआ था?
Ans. महर्षि दयानंद सरस्वती का निधन 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में हुआ था।